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मिश्रबंधु-विनोंद

१६९ मेश्रबंधु-विनोद कृपाराम { १५६६} लोचन पञ्च कटाच्छ र अनियारे बिष पूरि । मन मृग वेधै सुनिन के अग जन, सहित बिरि । मलिक मोहम्मद जायसी : १६००) गोरईं दीख साधु व जूम ; अपर कल्ब नेरे मा बुझा ।। कोपि सिंह सामुह रन भेजा है, जखन स ना मरे अकेला ।' जेइ सिर देइ कोपि तरवारू ; सईं घोड़े टूटईं असवरूि । तुल्क लावई बलइ नाहाँ ; गौरईं सीचु धरी मन माहाँ । मीरा बाई ( १६०० ) बसों में नैनन मैं नँदळाक्ष । हनि मृति साँवरि सूरति नैना ने रसाल ।। मोर मुकुट मकराकृत कुंडल अरुन तिलक दिए भाल ! अधर सुचारस मुरली राजति उर वैजंती मात्र । । . . कृष्णदास एअहारी ( १६००) - अवित लाल गर्द्धन धारी ; आजस नैन सुरसे से रंङ्गित प्रिया प्रेम नूतन अनुहारी है। दिलुलित माल मरगजी उर पर सुरति समर की लग पराग ; इँदत स्याम अधर रस गावतसुरति भाव सुख भैरव शग ? पलटि परे पट नील स्खी के रस में कलह मदन सङ्काय ! चैदान बीथिन अवलोकन कृष्णदास लौचन बड़ भय । |... नरोत्तमदास ( १६०२) खिच्छुक हौं सिगरे जग को गुरु तो कृ तु अब देति है सिच्छा ! जे तप कै परलोक सुधारत संपति की तिनकी नहिं इच्छा । मेरे हिये हरि के पद-पंकज, बार हजार है देखु परिच्छा । .. औरन को कुन चाहिय बावरि बाँभन ये घन केवल लिच्छा। द्वारिका अङ्क ज द्वारिका जा जू ठड्डु जाम यहै कक अनी ।