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मिश्रबंधु-विनोंद

मिश्नबंधु-विनोद सो मालूम होता है औ वाच्यडू में अगट है । ( दास-कृत टीका ! खलितकिशोरी व ललितमाधुरी ( १८००) मलयगिरि में समस्त बन वाकी पवन से चंदन ६ आयु ! वाके कळू इच्छा नाहीं । उत्तरालंकृत हिंदी ( संवत् १८६० ) लल्लूलाल इस बीच अति व्याकुल हो सुधि बुधि देह की बिसारे मन मारें रौती यशोदा रानी उद्धवजी के निकट आय राम कृष्ण की कुशल छ बोली कहो उद्धवजी हरि हम दिन वहाँ कैसे इतने दिन रहे और क्या संदेशा भेजा है कब आय दर्शन देंगे ? | सदल मिश्र ( दही काल ) . कुंड में क्या अच्छा निर्मल पानी कि जिसमें कमल के फूल्न पर भौंरे । अ रहे थे; तिस पर हंस सारस चक्रवाक आदि पक्षी भी तीर- तीर सोहावन शब्द बोलते, असपास के गाों पर कुहू-कुहू कौकि कुहुक रहे थे, जैसा बसंत ऋतु का घर ही होय।। परिवर्तन-काल की हिंदी ( संवत् ११०० से १९२५ ) सरदार । १६०२) बंशीवट के निकट आज मैंने नेक श्याम को मुख हेर । नट नागर के पट १ तब ते भैरों मन खटों हैं । शिव रिपु त्रिब तुजसी बहीन मनुज नर गिर रस इनको श्रादि वर्णन खेत तुहिन गिरिजर पार्वती सुत स्वामिकार्पिक वाहन मोर के पक्ष शिर पर धरे हैं। . : द्धा शिवप्रसाद । ११११ }.....। 'अब क्पिस के दिन आते हैं तो सारे सामान ऐसे ही बँध जाते हैं। निदान राजा नल ने चलतें समय दमयंती की साड़ी काटकर आधी : उसने के अपने पहरने को जी और अंधी उसके अदुनु पर रहने दी। इसे मनुष्य का मन भी विधाता नै सि प्रअर पर इ ई! ::