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मिश्रबंधु-विनोंद


दो परमोत्कृष्ट ग्रंथ रचे । कृप्लायन कृष्णखंड के अधार पर बढ़िया भाषा में रचा गया है और उसकी रचना कथा-प्रासंगिक ग्रंथों में तुलसी कृत रामायण के ढंग पर की गई है। उत्तमता में भी वह दो-चार को छोड़ प्रायः सभी कथा-प्रासंगिक ग्रंथों से श्रेष्ठतर है।‘सुरभो-दनलीला' भी मनोहर भाषा में सरस ग्रंथ है। यह महाकवि लाल तथा सेनापति का समकक्ष है। मधुसूदनदास ने (१८३६) मे रामाश्‍वमेघ-नामक एक भारी ग्रंथ दोहा-चौपाइयों मे बनाया, जो भक्ति-भाव से पूर्ण तथा सुपाठय हैं। नीलसखी की वाणी (१८४०) बड़ी ही सरस और भावपूर्ण हैं। देवकीनंदन (१८४१) ने नायिका भेद तथा अलंकारों का गंभीर एवं कठिन वर्णन किया । इनकी रचना प्रशंसनीय है। इन्होंने कुछ-कुछ कूट-कविता भी की । मनियारसिंह कृपानिवास ने भी चामत्कारिंक रचना की है। इठी (१८४७) ने बड़ी ही सरस और मधुर कविता रची। थान (१८४८) इस समय का बड़ा ही उत्कृष्ट कवि हो गया। यह चंदन कवि का भांव्श था । इसकी रचना में भाषा तथा भावों का बहुत अच्छा चमत्कार देख पड़ता है। इन्होंने अपनी कविता में काव्यांगों के लाने का पूर्ण प्रयत्न किया। इनके ग्रंथ में जो काव्यांग जहाँ पर आ गया है उसका लक्षण भी उसी जगह लिख दिया गया है। इनकी रचना में अच्छे छंद बहुतायत से पाए जाते हैं। बेनी मंदीक्षन (१८४६) ने कई ग्रंथ बनाए । इनके भँडौ़आ बड़े ही उद्दंड तथा भाव-पूर्ण होते थे। वह संख्या में भी अधिक हैं । कविता भी वह अच्छी करते थे। मौन ब्रह्मभट्ट (१८५१) की भी कविता रस-पूर्ण होती थी। कृष्णदास ने (१८५३) माधुर्यलहरी-नामक एक प्रशंसनीय ग्रंथ बनाया, जिसमें उत्कृष्ट कविता में कृष्ण-कक्ष कही गई हैं। इस समय में चंदन,मंचित, शीतल,रामचंद्र और थान भरी कवि थे तथा और भी उत्कृष्ट कवि