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मिश्रबंधु-विनोद

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बहुत साफ़ वर्णन किया । रसलीन (१७८४-६६) ने दोहों में रसविषय को सांगोपांग वर्णित किया। इसके दोहे बड़े ही मनोहर होते थे । रघुनाथ (१७६६) भाषा-काव्य में अलंकारों के नामी आचार्यो में से हैं । यद्यपि इनकी भाषा वैसी नहीं थी, तथापि कविता इन्होंने अच्छी एवं सारगर्भित की और खड़ी बोली में भी छंद रचे । ललितकिशोरी और ललितमोहनी ने ब्रजभाषा-गद्य में एक ग्रंथ बनाया है,जिसमें कुछ-कुछ खड़ी बोली का भी ढंग आ जाता है। 
 चाचा वृंदावन हित (१८००) इस समय में एक परम प्रशंसनीय और भारी कवि हो गए है। यह महात्माजी श्रीगोस्वामी हरिवंशहित के संप्रदाय में थे। सुना जाता है कि इनकी सवा लक्ष वाणी वर्तमान है। कोई साढ़े १८ हजार पद इनके हमने भी देखे है। स्मरण रहे कि महात्मा सूरदास के चार-पाँच हजार पदों से अधिक नहीं मिलते। चाचाजी की भाषा परम ललित और मधुर है। यह कृष्णानंद में डूबे हुए थे। कुल मिलाकर इनका पद हिंदी-काव्य में बहुत ऊँचा है। गिरिधर कविराय ने कुंडलिया-छंदों में दैनिक व्यवहारों और साधारण नीति अत्यंत चयेष्टता के साथ कही है। नूरमुहम्मद ने जायसी की भाषा में उसी ढंग की इंद्रावती-नामक प्रेम कहानी लिखी। ठाकुर कवि ने सवैयाओं में बड़ी ही टकसाली कविता की । इसकी कविता हृदय पर चोट पहुँचानेवाली तथा सच्चे प्रेम से परिपूरित है। यह कवि अव्वल नंबर का रसिया था और इसकी कहावत ऐसी मधुर और सरस है कि उसके पढ़ने में उत्तरोत्तर आनंद बढ़ता ही जाता है। इसके सवैया देव के छंदो से पूरी टक्कर लेते हैं और भाव प्रायः सदा ही नवीन एवं परम चमत्कारी होते हैं। यदि इसकी अधिक कविता मिल जाय तो शायद यह महाकवि नवरसवालों तक का सामना कर सके। अब भी इसका स्थान प्रथम कक्षा के कवियों में ऊँचा है। गुमान मिश्र (१८०१) ने नैषध काव्य का विविध छंदों में उल्था किया ।श्रेणीःमिश्रबंधु-विनोद