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मिश्रबंधु-विनोद




इस काल तक उसकी साहित्य में गणना नहीं हो सकी। इस काल में वीर-काव्य और विविध विषयों की चाल हिंदी में भली भाँति पड़ गई और अनेक शूरवीरों के प्रभाव के सम्मुख संभव था कि श्रृंगार काव्य की प्रथा मंद पड़ जाती, पर श्रृंगार-तरु की जड़ें हमारी भाषा भूमि में बहुत गहरी पहुँच चुकी थी, सो वे न हिल सकी और श्रृंगार की कविता का भी प्रभाव बना रहा, वरन् आगे चलकर वह और भी प्रबल पड़ गया। यों तो भाषा के प्रथम आचार्य केशवदासजी हैं, पर नायिका-भेद और रीति-ग्रंथों के लिखने की परिपाटी ठीक-ठीक इसी काल में पड़ी । इसी काल में कालिदास त्रिवेदी ने हज़ारा-नामक प्रसिद्ध संग्रह-ग्रंथ लिखा और टीकाएँ रचने की चाल पड़ी । सारांश यह कि इस समय को हिंदी का आगस्टन काल (Auguston age) कह सकते हैं ।

         चौथा अध्याय 
   उत्तरालंकृत हिंदी (१७११-१८८१) 
अभी महाकवि देव का ही समय चला जाता था, पर थोड़े दिनों पीछे (१८२५ में) उनका शरीर पंचत्व को प्राप्त हुआ और हिंदी-साहित्य की कुछ-कुछ अवनति हो चली । कतिपय अन्य कवियों ने अवश्य ही उत्कृष्ट कविता की, पर उनके पीछे वह बात न रही, तो भी बेनी प्रवीन, शेखर, वृंदावन और परताप के होते हुए मावा की न्यूनता नहीं होने पाई । 
इस वृहत् काल को भी हम पाँच उपविभागों में विमक्त करते हैं, पहला अंतिम देव-काल, जिसको हम दास-काल कहेंगे (क्योंकि इसमें दास-काल की ही बातों की विशेषता पाई जाती है) (१७६१-१८१०); दूसरा सूदन काल (१८११-३०);तीसराश्रेणीःमिश्रबंधु-विनोद