पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/११७

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हा काशीप्रकाश इसी सेवन में प्रिय पुत्र काशीप्रकाश के अकाल स्वर्गवास से हमने " काशीप्रकाश' नामक प्रायः १२१ पद्यों की सड़ी बोली में शोक कबिता रही। दाहरण. काशी विद्यारीठ विदित है वेश हुअा प्रकाश वहीं; दीयमालिका की उजियाली श्च तक भूखो मुझे नहीं। फिर भी बुद्धि प्रकाशमान क्यों पढ़ने में न होय तेरी होनी श्रीशि चाहिन श्री विद्या सुबुद्धि को तय चेरी। रूस एवं जापान का इतिहास तथा भारत-विनय यह संक्त् बहुत करके विनोद-संबंधी काम में बीता। संवत् १६६५ में भी यही काम हुशा और रूस का इतिहास लिम्ला गया। न्याय और दया पर एक लेख इसी साल छपा । संवत् १९६६ में कृष्ण-जन्म की कविता सरस्वती में छपी, झापान का इतिहास शिखा गया, जडे दो साल पीछे प्रकाशित हुश्रा और भारत-विनय का प्रारंभ हुआ, को दूसरे साल समास हो गया। इसमें प्रायः १००० बड़ी बोली के छंदों में भारतीय वर्तमान दोपों एवं बोपोद्धार-संबंधी प्रयत्नों के कथन है । यह हमारा दूसरा जड़ी बोली-पद्य का ग्रंथ है, जिसमें केवल भूमिका ब्रजभाषा में है। उदाहरण:पञ्चीस पुश्त पर तेरा दादा था गुरु मूरख अज्ञानी पर उसी काल मम पूर्व पुस्त था महामहिम पंडितमानी। सो यधपि हूँ मैं मूर्ख लंठ शठ तू पंडित गुमवाद पर नहीं सुधी तू हो सकता है मेरे कभी समान । इस साँति मूर्ख जन सदा चाव से पंडितगन को फटकारें ; अल्पंडित भी मुख नाय भेड़-सम इन कथनों को सतकारें ।