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मिश्रबंधु-विनोंद

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मिश्रबंधु-विनोद गुण-दोष-कथन में एक १२ कालमों का लेख प्रकाशित हुआ। इसमें दोषों की मात्रा विशेष थी । क्रोध एवं नशामद पर भी ६२ पृष्टों के दो लेख इसी साल वनिताचिनोंद के लिये लिखे गार और व्यय पर भी एक छोटा-सा लेख उसी में छपाया गया। रघु-संभव संवत् १९६४ में हम रघुवंश का छंदोबद्ध स्वच्छंद अनुवाद लिखने लगे। उसके प्रायः ढाई सर्ग हो चुके थे कि हिंदी-साहित्य के इतिहास का काम होने लगा। रघुवंश के अनुवाद में हम तीसरे अध्याय के ३५वें श्लोक तक पहुँचे थे कि वह छूट गया । उदाहरणता बन पालक के फिरते बन में बिनहीं बरषा सुखदाई ; गों बुझि. घोर दवानल त्यों फल-फूल भए अति ही अधिकाई । जीव हुए बलहीन जिते तिनको बलवान सके न सताई; कानन हू मैं दिलीप महीपति राज समान सुनीति चलाई। पौन भरै बर बाँसन मैं तिनसों मुरली-सम तान सौहाई; पूरित होति दसौ दिसि मैं बन मैं अति ही श्रुति-आनंददाई । मानहु कुंजन मैं बनदेव भरे मुद मंजुल बीन बाई; गावत कीरति भूपति की पय फेन लौं जौन दिगंतन छाई। था विधि के उपचारन सो ऋम सों जब दोहद-पीर सिग्नी: 'खोय गई पियराई सबै अंग अंगनि पीवरता दरसानी। .. यो परिपूरन चंद छटा-सम अानंद सो बिलसी महरानी; बेलिन मैं पतिकार भए जिमि कोपल की अवली हरियानी । सुंदर बालक सो निज तेज सुमाविक पूरि दसौ दिसि माहों । मंद किए सब दीपक जे अधराति प्रसूति धरै दरसाहीं । बाल लसै दिननायक सो दिन दीपक से निसि दोप लखाहीं। . " 'चार प्रदीप चितेरन सौ मनु चित्रित चित्रपटीन सौहाही .