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मिश्रबंधु-विनोंद

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मिश्रबंधु-विनोद में रक्खे गए है। आप आजकल काशी-नागरीप्रचारिणी सभा की भ्रंथ-माला द्वारा देव-मंथावली को संपादित करके प्रकाशित कर रहे हैं, जिसमें प्रेम-चंद्रिका, राग-रत्नाकर तथा सुभानविनोद निकल चुके हैं। __ हमको अपने ग्रंथों के विषय में विस्तार-पूर्वक कथन करने की इच्छा न थी, परंतु संसार की कुछ ऐसी विचित्र रुचि है कि कभी-कभी वह परम तुच्छ पदार्थों की भी तलाश करने लगता है और जब वह ऐसे स्थानों पर नहीं मिलते, जहाँ उनका मिलना स्वाभाविक है, तब उसे उचित क्रोध भी आ सकता है । फिर विनोद के इतिहास ग्रंथ होने के कारण जब औरों के हालात लिखने का इसमें प्रयत्न किया गया है, तब अपना ही न लिखना कदाचित् विज्ञ-समाज में और भी निंद्य समझा जाय । इस कारण हम इसमें शेष दो लेखकों की रचनाओं का भी वर्णन किए देते हैं। . । शेष दोनों लेखक संवत् १६४६-४७ के लगभग से हमारी पृथक्-पृथक् छंदोरचना का प्रारंभ हुआ, परंतु दोनों मनुष्यों ने १० छंदों से अधिक नहीं रवे । इस समय तक हमने मिलकर काव्य- निर्माण करने का विचार . नहीं किया था । हमने अपने उपनाम शिरमौर एवं शशिभाल रक्खे । संवत् १९५४ पर्यंत केवल स्फुट छंद रचे गए, जिनमें से कई छंद गुप्त हो गए । उदाहरण--- श्रावहि रेल अबै तुरको महँ दौरि इटौँ जे के लोग सिधावहिं ; धावहि चालक के गन त्यो द्विज स्याम बिहारी तहाँ पर जावहिं। आवहि मित्रन को सँग लै तिनको कल के विरतंत सुनावहिँ; नगवहिँ सीस उमापति को पुनि लौटि सबै निज मंदिर प्रावहिं। . (यह हमारा प्रधम छंद है ) गृह धरि छोरि हरि जाय समुना के तीर , लीने ग्वाश भीर कूधो नीर मैं सहित सुख : .