पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/१०७

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भूमिका देखना यह है कि बेचारी हिंदी कहाँ तक अपना रूप स्थिर रखने तथा प्राण बचाने में समर्थ होती है ? श्राजकन्द कितने ही लेखकों का मत है कि पध में तो हिंदी में प्रचलित शब्दों के रूयों का लिखना उचित है, परंतु गध में शुद्ध संस्कृत शब्द ही लिखने चाहिए। यह मत गोरखनाथ, बिटुलनाथ, गोकुळनाथ, नामादास, बन्नारसीदास श्रादि प्राचीन कवियों के गद्य-लेखों के नितांत प्रतिकूल है। कोई कारण नहीं है कि पध में तो हिंदी शब्दों का प्रयोग हो, परंतु गद्य में उनका स्थान एक दुसरी भाषा के शब्दोल। हिंदी के स्वन्त्र पर संस्कृतादि भाषाओं का ऐसा अधिकार अमना छोर अन्याय है। ग्रंथ-रचयिता इस भूमिका को समाप्त करने के पूर्व अपने विषय में भी कुछ बातों का कथन हम परंपरानुसार उचित समझते हैं। पहले हम दोही लेखक एकसाथ लेख या ग्रंथ लिखा करते थे, एरंत प्रावीचनासंबंधी लेखों में प्रायः गुरुभ्राता पं० गशविहारीजी की भी कुछकुछ सहायता रहा करती थी। इस बात ऋथन सन् १९०० की सरस्वती में प्रकाशित हिंदी-काम्य-पालोचना-नामक लेख में इस प्रकार किया गया था___ "इस लेख की रचना में हमें अपने सहोदर अग्रज श्रीयुत पंडित शिवविहारीलालजी और विशेषकर श्रीवत पंडित गणेशविहारीजी महानुभावों से बहुत कुछ सहायता मिली है, पर उनकी कृतज्ञता प्रकाश करनी हमें सर्वधा अनुचित है।" गणेशविहारी अब विनोद-संबंधी कार्य प्रारंभ हुआ, तद अपनी स्थिर प्रकृति के अनुसार गुरुभ्रादा ने भी उसमें पुरा योग दिया, यहाँ तक कि थोड़े ही दिनों में यह प्रकट हो गया कि लेखकों में उनका नाम न रखना अन्याय है। इसी कारण हम तीनों भ्रातात्रों के नाम विनोदकर्ताओं