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मिश्रबंधु-विनोंद

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मिश्रबंधु-विनोद पंडितों ने उसे भी दुर्गम व्याकरण के अटल नियमों से जकड़ दिया, जिलका फल यह हुआ कि थोड़े दिनों में वह लुप्त हो गई और धीरे-धीरे हिंदी ने उसका स्थान लिया। अभी तक हिंदी में कोई परम दृढ़ व्याकरण नहीं स्थिर हुश्रा है। इसी से वह दिनोंदिन उन्नति करती चली जाती है । जिस समय उसका भी परम कठिन व्याकरण बन जायगा, तब वह भी मृत भाषाओं में परिगणित होने के लिये दौड़ने लगेगी, और देश में कोई दूसरी ही सुगम भाषा चल पड़ेगी। व्याकरण भाषा का अनुगामी होता है, न कि भाषा व्याकरण की। हमारी समझ में प्रत्येक भाषा के व्याकरण को यथासाध्य अत्यंत सरल एवं सुगम होना चाहिए। यदि कोई व्याकरण ऐसा बने कि पुराने भारी लेखकों की भी रचनाएँ उसके नियमानुसार अशुद्ध ठहरें, तो वह ब्याकरण हो निंद्य होगा और उसके बराबर भाषा का दूसरा शत्रु खोजना कठिन होगा, क्योंकि वह अपनी स्वामिनी भाषा के ही मूलोच्छेदन में प्रवृत्त रहेगा । संस्कृत भाषा के शास्त्रार्थ मुख्य विषय को छोड़कर प्रायः "अशुद्धति वक्तव्यम्" पर ही समाप्त होते हैं। हमारे यहाँ कुछ लेखकों में भी इन्हीं बातों की और रुचि बढ़ती हुई देख पड़ती है, जो सर्वथा तिरस्करणीय है। प्राचीन समय के महात्मा गोरखनाथ आदि संस्कृत के पूर्ण पंडित थे। उन्होंने अनेक संस्कृत के ग्रंथ लिखने पर भी भाषा गद्य तक में शब्दों के संस्कृत-संबंधी रूपों का तिरस्कार किया । गोरखनाथ का रचनाकाल संवत् १४०७ था। इनका एक ऐसा वाक्य ग्रंथ में उद्धृत है, जिसमें अज्ञ, अस्नान, छन, सर्व. पुजि चुकौ और पितरन शब्दों का इन्हीं रूपों में व्यवहार हुअा है, न कि संस्कृत के रूपों में । यही दशा महात्मा बिटलनाथ एवं गोकुलनाथ की रचनाओं में है। पद्य में भी सब लेखक बेधड़क ऐसे ही शब्द रखते चले आए हैं। हमारे यहाँ अव गद्य-काल में हिंदो पर संस्कृत का प्रचंड आक्रमण हो रहा है।