यदि किसी मनुष्य को विचारशक्ति दृढ़ है, छाया मात्र नहीं और उसकी इच्छा संसार में भलाई करने की है तो उसको चाहिए कि वह अपने क्षणिक आशाओं और व्यर्थों के विचारों को एकदम दूर करदे। अधूरी इच्छा जो भ्रम से संयुक्त हो साल छह महीने तक अपने मनमें रखना और फिर उसको छोड़ दूसरी बात की इच्छा करने लगना शारीरिक बल को खोना है और शक्ति को क्षीण करना है और बराबर ऐसा करने से अन्त में किसी काम पर दृढ़ ध्यान लगाने की शक्ति सर्वथा जाती रहती है। इस प्रकार का मनुष्य कभी अपना अभीष्ट नहीं प्राप्त कर सकता। यह मनुष्य श्रेणी से गिर जाता है।
"जो मनुष्य अस्थिर चित्तवाला है वह समुद्र की तरंग के समान है जो वायु से विताड़ित होती रहती है। ऐसे मनुष्य पर परमेश्वर कभी दयादृष्टि नहीं रखता और न कुछ वह कृपापात्र होता है। द्विचित मनुष्य अपने सब कार्यों में अस्थिर रहता है"। इसलिए जो मन आज एक वस्तु की इच्छा करता है और कल दूसरी वस्तु की वही अस्थिर कहलाता है। ऐसा मन इच्छारूपी झोके के साथ उड़ा करता है। जिस प्रकार जीवनरूपी समुद्र की वायु विताड़ित लहरों के ऊपर पतवार रहित नौका जिसका कि कोई निश्चित बन्दरगाह नहीं होता, डामाडोल होती हुई जिस चाहे ओर चली जाती है वही हाल मनुष्य के चंचल चित्त का है। ऐसा मनुष्य कभी परमेश्वर का कृपापात्र नहीं बन सकता।
एक प्रकार की इच्छा निराशाजनक भी होती है। यद्यपि ऐसी इच्छा अपने आप बलवती और सच्ची भी हो; परंतु साथ
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