पद्मा का साहस कुछ प्रबल हुआ-तुमसे मैं जो पूछती हूँ, उसका जवाब दो। मुझे जहन्नुम मे भेजी।
'तो तुम भी मुझे जहन्नुम में जाने दो।'
'मैं इधर कई दिन से तुम्हारा मिज़ाज बदला हुआ देख रही हूँ।'
'तुम्हारी आँखों की ज्योति कुछ बढ़ गई होगी।'
'तुम मेरे साथ दगा कर रहे हो, यह मै साफ देख रही हूँ।'
'मैंने तुम्हारे हाय अपने को बेचा नहीं है , अगर तुम्हारा जी मुझसे भर गया है, तो मैं आज जाने को तैयार हूँ।'
'तुम जाने की धमकी क्या देते हो! यहाँ तुमने आकर कोई बड़ा त्याग नहीं किया है।
'मैंने त्याग नहीं किया है। तुम यह कहने का साहस कर रही हो। मैं देखता हूँ, तुम्हारा मिज़ाज बिगड़ रहा है। तुम समझती हो, मैंने इसे अपंग कर दिया , मगर में इसी वक्त तुम्हे ठोकर मारने को तैयार हूँ। इसी वक्त, इसी वक्त !'
पद्मा का साहस जैसे बुझ गया था। प्रसाद अपना ट् क सँभाल रहा था। पद्मा ने दोन भाव से कहा---मैंने तो ऐसी कोई बात नहीं कही, जो तुम इतना विगङ उठे। मैं तो केवल तुमसे पूछ रही थी, कहाँ थे । क्या तुम मुझे इतना अधिकार भी नहीं देना चाहते? मैं कभी तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध कोई काम नहीं करती और तुम मुझे बात-बात पर डाँटते रहते हो। तुम्हे मुझ पर ज़रा भी दया नहीं आती ! मुझे तुमसे कुछ भी सहानुभूति मिलनी चाहिए। मैं तुम्हारे लिए क्या कुछ करने को तैयार नहीं हूँ। और आज जो मेरी यह दशा हो गई है, तो तुम मुझसे आँखें फेर लेते हो ..।
उसका कण्ठ रुंँध गया और यह मेज पर सिर रखकर फूट-फूटकर रोने लगी।
प्रसाद ने पूरी विजय पाई।
( ३ )
पद्मा के लिए मातृत्व अब बड़ा ही अप्रिय प्रसंग था। उस पर एक चिन्ता मडराती
रहती। कभी-कभी वह भय से काँप उठती और पछताती । प्रसाद की निरंकुशता दिन-
दिन बढती जाती थी। क्या करे, क्या न करे । गर्भ पूरा हो गया था, वह कोर्ट न जाती
थी। दिनभर अकेली बैठी रहती । प्रसाद स या समय आते, चाय-वाय पीकर फिर उड़
जाते, तो ग्यारह बारह बजे के पहले न लौटते। वह कहीं जाते हैं, यह भी उससे