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वेश्या


समीप आकर बोली-मेरे मुंह पर तो ताला डाल दिया गया है, लेकिन क्या करु, बिना बोले रहा नहीं जाता। कई दिन से सरकार की महफिल में सन्नाटा क्यों है ? तबीयत तो अच्छी है ?

सिंगार ने उसकी ओर आँखें उठाई। उनमें व्यथा भरी हुई थी। कहा- तुम अपने सके क्यों नहीं चली जाती लीला ?

'आपकी जो आज्ञा , पर यह तो मेरे प्रश्न का उत्तर न था।'

'वह कोई बात नहीं । मैं बिलकुल अच्छा हूँ। ऐसे बेहयाओ को मौत भी नहीं आती। अब इस जीवन से जी भर गया। कुछ दिनों के लिए बाहर जाना चाहता है, तुम अपने घर चली जाओ, तो मैं निश्चिन्त हो जाऊँ ।'

'भला, आपको मेरी इतनी चिन्ता तो है।'

'अपने साथ जो कुछ ले जाना चाहती हो, ले जाओ।'

'मैंने इस घर की चीज़ो को अपनी समझना छोड़ दिया है।'

'मैं नाराज़ होकर नहीं कह रहा हूँ लोला । न-जाने कब लौट, तुम यहां अकेली कैसे रहोगी?

कई महीनों के बाद लीला ने पति को आँखों में स्नेह की झलक देखी।

'मेरा विवाह तो इस घर की सम्पत्ति से नहीं हुआ है, तुमसे हुआ है। जहाँ तुम रहोगें, वहीं में भी रहूंगी।'

'मेरे साथ तो अबतक तुम्हे रोना ही पड़ा।'

लीला ने देखा, सिंगार को आँखों मे आँसू की एक बूँद नीले आकाश में चन्द्रमा की तरह गिरने-गिरने हो रही थी। उसका मन भी पुलकित हो उठा । महीनों की क्षुधागि में जलने के बाद अन्न का एक दाना पाकर वह उसे कैसे ठुकरा दे । पेट नहीं भरेगा, कुछ भी नहीं होगा , लेकिन उस दाने को ठुकराना क्या उसके बस की बात थी ?

उसने बिलकुल पास आकर अपने आंचल को उसके समीप ले जाकर कहा-मैं तो तुम्हारी हो गई। हँसाओगे, हँसूँगी, रूलाओगे, रोऊँगी; रखोगे, तो रहूँगी, निकालोगे, तो भी रहूँगी, मेरा घर तुम हो, धर्म तुम हो, अच्छी हूँ, तो तुम्हारी हूँ, बुरी है, तो तुम्हारी हूँ।

और दूसरे क्षण सिंगार के विशाल सोने पर उसका सिर रखा हुआ था और उसके‌