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मानसरोवर


जायगी। खैर, पुरुष-समाज जितना अत्याचार चाहे, कर ले। हम असहाय हैं, अशक्त हैं, आत्माभिमान को भूल बैठी हैं , लेकिन...

सहसा सिगारसिह ने उसके हाथ से वह पत्र छीन लिया और जेब मे रखता हुआ बोला-क्या बड़े गौर से पढ़ रहे हो, कोई नयी बात नहीं है। सब कुछ वही है, जो तुमने सिखाया है। यही करने तो तुम उसके यहाँ जाते थे। मैं कहता हूँ, तुम्हें मुझसे इतनी जलन क्यो हो गई ? मैंने तो तुम्हारे साथ कोई बुराई न की थी, इस साल-भर मे मैंने माधुरी पर दस हजार से कम न फूँके होंगे। घर में जो कुछ मूल्यवान् था, वह मैंने उसके चरणों पर चढा दिया और आज उसे साहस हो रहा है कि वह हमारी कुल-देवियों की बराबरी करे ! यह सब तुम्हारा प्रसाद है । 'सत्तर चूहे खाके बिल्ली हज को चली !' कितनी बेवफा जा़त है। ऐसों को तो गोली मार दे। जिसपर सारा घर लुटा दिया, जिसके पीछे सारे शहर मे बदनाम हुआ, वह आज मुझे- उपदेश करने चली है ! जरूर इसमें कोई-न-कोई रहस्य है । कोई नया शिकार फँसा होगा, मगर मुझसे भागकर जायेगी कहाँ ? ढूंढ न निकालूँ तो नाम नहीं। कम्बखत कैसी प्रेम-भरी बातें करती थी कि मुझ पर घड़ी नशा चढ जाता था । वस, कोई नया शिकार फंँस गया । यह वात न हो, तो मूंँछ मुड़ा लूँ।

दयाकृष्ण उसके सफाचट चेहरे की ओर देखकर मुसकिराया-तुम्हारी मूँछे तो पहले ही मुड़ चुकी हैं।

इस हलके-से विनोद ने जैसे सिंगारसिंह के घाव पर मरहम रख दिया। वह बे- सरो सामान घर, वह फटा फर्श, वह टूटी-फूटी चीजें देखकर उसे दयाकृष्ण पर दया आ गई। चोटको तिलमिलाहट में वह जवाब देने के लिए ईट-पत्थर हूँढ रहा था , पर अब चोट ठण्डी पड़ गई थी और दर्द घनीभूत हो रहा था और दर्द के साथ सौहार्द भी जाग रहा था। जब आग ही वुझ गई, तो धुआँ कहाँ से आता।

उसने पूछा----सच कहना, तुमसे भी कभी प्रेम की बातें करती थी ?

दयाकृष्ण ने मुसकिराते हुए कहा-मुझसे । मैं तो खाली उसकी सूरत देखने जाता था।

'सूरत देखकर दिल पर काबू तो नहीं रहता।'

'यह तो अपनी-अपनी रुचि है।'

'है मोहिनी, देखते ही कलेजे पर छुरी चल जाती है।'