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मानसरोवर


नहीं करते । उद्धार वही कर सकते हैं जो उद्धार के अभिमान को हृदय मे आने ही नहीं देते। जहां प्रेम है, वहां किसी तरह का भेद नहीं रह सकता।

यह कहने के साथ हो वह उठकर बराबरवाले दूसरे कमरे में चली गई और अन्दर से द्वार बन्द कर लिया । दयाकृष्ण कुछ देर वहाँ मर्माहत-सा रहा, फिर धीरे-धीरे नीचे उतर गया, मानो देह में प्राण न हो।

( ४ )

दो दिन दयाकृष्ण घर से न निकला । माधुरी ने उसके साथ जो व्यवहार किया, -इसकी उसे आशा न थी। माधुरी को उससे प्रेम था, इसका उसे विश्वास था , लेकिन जो प्रेम इतना असहिष्णु हो, जो दूसरे के मनोभावों का ज़रा भी विचार न करे, जो मिथ्या कलंक आरोपण करने में भी संकोच न करे, वह उन्माद हो सकता है, प्रेम नहीं । उसने बहुत अच्छा किया कि माधुरी के कपट-जाल में न फंँसा, नहीं उसकी न-जाने क्या दुर्गति होती ।

पर दूसरे क्षण उसके भाव बदल जाते और माधुरी के प्रति उसका मन कोमलता से भर जाता । अब वह अपनी अनुदारता पर, अपनी सकीर्णता पर पछताता । उसे माधुरी पर संदेह करने का कोई कारण न था। ऐसी दशा मे ईर्ष्या स्वाभाविक है । वह ईर्ष्या ही क्या, जिसमें डंक न हो, विष न हो । माना, समाज उसकी निन्दा करता । यह भी मान लिया कि माधुरी सती भार्या न होती। कम-से-कम सिंगारसिंह तो उसके पंजे से निकल जाता । दयाकृष्ण के सिर से ऋण का भार तो कुछ हलका हो जाता, लीला का जीवन तो सुखी हो जाता।

सहसा किसी ने द्वार खटखटाया । उसने द्वार खोला तो सिंगारसिंह सामने खड़ा था । बाल विखरे हुए, कुछ अस्त-व्यस्त ।।

दयाकृष्ण ने हाथ मिलाते हुए पूछा- क्या पाँव-पांँव ही आ रहे हो, मुझे क्यों न बुला लिया ?

सिंगार ने उसे चुभती हुई आंखों से देखकर कहा-मैं तुमसे यह पूछने आया हुँ कि माधुरी कहाँ है ! अवश्य तुम्हारे घर में होगी।

'क्यों, अपने घर पर होगी, मुझे क्या खबर ? मेरे घर क्यों आने लगी ?'

'इन बहानों से काम न चलेगा, समझ गये ! मैं कहता हूँ, मैं तुम्हारा खून पी जाऊँगा ; वरना ठीक-ठीक बता दो, वह कहाँ गई ?'