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मानसरोवर


यह कहते हुए माधुरी ने दयाकृष्ण का हाथ पकड़ लिया और अनुराग और समर्पण-भरी चितवनो से उसे देखकर बोली-सच बताओ कृष्ण, तुम मुझमें क्या देखकर आकर्षित हुए थे। देखो, वहानेबाजी न करना । तुम रूप पर मुग्ध होनेवाले आदमी नहीं हो, मैं कसम खा समती हूँ ।

दयाकृष्ण ने सकट में पड़कर कहा-रूप इतनी तुच्छ वस्तु नहीं है माधुरी ! वह मन का आईना है।

'यहाँ मुझसे रूपवान् स्त्रियों की कमी नहीं है।'

'यह तो अपनी-अपनी निगाह है। मेरे पूर्व-सस्कार रहे होंगे।'

माधुरी ने भवें सिकोड़कर कहा--तुम फिर झूठ बोल रहे हो, चेहरा कहे देता है।

दयाकृष्ण ने परास्त होकर पूछा--पछकर क्या करोगी माधुरी ? मैं डरता हूँ कहीं तुम मुझसे घृणा न करने लगो । सम्भव है, तुम मेरा जो रूप देख रही हो, वह मेरा असलो रूप न हो।

माधुरी का मुंँह लटक गया। विरक्त-सी होकर बोली- इसका खुले शब्दों में यह अर्थ है कि तुम्हे मुझ पर विश्वास नहीं । ठीक है, वेश्याओं पर विश्वास करना भी नहीं चाहिए । विद्वानों और महात्माओ का उपदेश कैसे न मानोगे।

नारी-हृदय इस समस्या पर विजय पाने के लिए अपने अस्त्रों से काम लेने लगा। .

दयाकृष्ण पहले ही हमले मे हिम्मत छोड़ बैठा। बोला- तुम तो नाराज़ हुई जाती हो माधुरी। मैंने तो केवल इस विचार से कहा था कि तुम मुझे धोखेवाज़ सम. झने लगोगी। तुम्हे शायद मालम नहीं है, सिंगारसिह ने मुझ पर कितने एहसान किये हैं। मैं उन्हीं के टुकडों पर पला हूंँ। इसमे रत्ती भर भी मुबालगा नहीं है। यहाँ आकर जब मैंने उनके रंग-ढग देखे और उनकी साध्वी स्त्री लीला को बहुत दुखी पाया, तो सोचते-सोचते मुझे यही उपाय सूझा कि किसी तरह सिंगारसिंह को तुम्हारे पंजे से छुड़ाऊँ। मेरे इस अभिनय का यही रहस्य है । लेकिन उन्हे छुड़ा तो न सका, खुद फंस गया। मेरे इस फरेब की जो सजा चाहो दो, सिर झुकाये हुए है।

माधुरी का अभिमान दृट गया। जलकर बोली-तो यह कहिए कि आप लीला देवी के आशिक हैं । मुझे पहले से मालूम होता, तो तुम्हें इस घर में घुसने न देती। तुम तो एक छिपे रुस्तम निकले।