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शूद्रा


बुलाया, लेकिन वह चुप्पी साधे रह गया। यह सदेह-युक्त निरादर कोमलहृदय गौरा के लिए असह्य था। जिस पुरुष को वह देव-तुल्य समझती थी, उसके प्रेम से वंचित होकर वह कैसे जीवित रह सकती थी ? यही प्रेम उसके जीवन का आधार था। उसे खोकर अब वह अपना सर्वस्व खो चुकी थी।

आधी रात से अधिक बीत, चुकी थी। मॅगरू बेखबर सोया हुआ था। शायद वह कोई स्वप्न देख रहा था । गौरा ने उसके चरणों पर सिर रखा और अस्पताल से निकली। मॅगरू ने उसे परित्याग कर दिया था । वह भी उसका परित्याग करने जा रही थी।

अस्पताल के पूर्व दिशा मे एक फर्लाङ्ग पर एक छोटी-सी नदी बहती थी। गौरा उसके कगार पर खड़ी हो गई। अभी कई दिन पहले वह अपने गांव में आराम से पड़ी हुई थी। उसे क्या मालूम था कि जो वस्तु इतनी मुश्किल से मिल सकती है, वह इतनी आसानी से खोई भी जा सकती है। उसे अपनी मां को, अपने घर की, अपनी सहेलियों को, अपने बकरी के बच्चों की याद आई। वह सब कुछ छोडकर इसीलिए यहाँ आई थी ! पति के ये शब्द - 'क्या साहब के गले में जगह नहीं है' उनके मर्मस्थान मे वाणों के समान चुभे हुए थे। यह सब मेरे ही कारण तो हुआ ? मैं न रहूँगी तो वह फिर आराम से रहेंगे। सहसा उसे ब्राह्मणी की याद आ गई। उस दुखिया के दिन यहां कैसे कटेंगे । चलकर साहब से कह दूँ कि उसे या तो उसके घर भेज दें या किसी पाठशाला में काम दिला दें।

वह लौटा ही चाहती थी कि किसीने पुकारा--गौरा ! गौरा ॥

वह मॅगरू का करुण-कम्पित स्वर था। वह चुपचाप खड़ी हो गई। मंगरू ने फिर पुकारा-

गौरा । गौरा ! तुम कहाँ हो, मैं ईश्वर से कहता हूँ कि-

गौरा ने और कुछ न सुना। वह धम से नदी में कूद पड़ी। बिना अपने जीवन का अन्त किये वह स्वामी की विपत्ति का अन्त न कर सकती थी।

धमाके की आवाज़ सुनते ही मँगरू भी नदी में कूदा। वह अच्छा तैराक था। मगर कई बार गोते मारने पर भी गौरा का कहीं पता न चला ।

प्रात काल दोनों लाशें साथ-साथ नदी में तैर रही थीं। जीवन यात्रा में उन्हें यह चिर-सग कभी न मिला था । स्वर्ग-यात्रा मे दोनों साथ-साथ जा रहे थे।।

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