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मानसरोवर


में जलन, सारे अंग जकड़ गये थे। हिलने की भी शक्ति न थी। हवा घावों में शर के समान चुभती भी, लेकिन यह सारी व्यथा वह सह सकता था। असह्य यह था कि साहब गोरा के साथ इसी घर मे विहार कर रहा है और मैं कुछ नहीं कर सकता। उसे अपनी पीड़ा भूल-सी गई थी, कान लगाये सुन रहा था कि उनकी बातों की भनक कान में पड़ जाय, देखू क्या वातें हो रही है। गौरा अवश्य चिल्लाकर भागेगी और साहव उसके पीछे दौड़ेगा। अगर मुझसे उठा जाता तो उस वक्त बचा को खोदकर गाड़ ही देता । लेकिन बड़ी देर हो गई, न तो गौरा चिल्लाई, न बॅगले से निकलकर भागी। वह उस सजे-सजाये कमरे में साहब के साथ बैठी सोच रही थी क्या इसमें तनिक भी दया नहीं है ? मंगरू का पीला-क्रन्दन सुन-सुनकर उसके हृदय के टुकड़े हुए जाते थे। क्या इसके अपने भाई-बद, मां-बहन नहीं हैं ? माता यहाँ होती तो उसे इतना अत्याचार न करने देती। मेरी अम्माँ लड़कों पर कितना बिगड़ती थीं, जब वह किसीको पेड़ पर देले चलाते देखती थीं । पेड़ में भी प्राण होते हैं। क्या इसकी माता इसे एक आदमी के प्राण लेते देखकर भी इसे मना न करतो । साहब शराब पी रहा था और गौरा गोश्त काटने का छुरा हाथ में लिये खेल रही थी।

सहसा गौरा की निगाह एक चित्र की ओर गई। उसमें एक माता बैठी हुई थी। गौरा ने पूछा---साहब, यह किसकी तसवीर है। साहब ने शराब का ग्लास मेज़ पर रखकर कहा...और वह हमारे खुदा की माँ मरियम है।

गौरा-बड़ी अच्छी तसवीर है । क्यों साहब, तुम्हारी माँ जीती हैं न!

साहब-वह मर गया। हम जब यहाँ आया तो वह बीमार हो गया। हम उसको देख भी नहीं सका।

साहब के मुख-मण्डल पर करुणा की झलक दिखाई दी।

गौरा बोली-तब तो उन्हे बड़ा दुख हुआ होगा तुम्हें अपनी माता का भी प्यार नहीं था। वह रो-रोकर मर गई और तुम देखने भी न गये। तभी तुम्हारा दिल इतना कड़ा है।

साहब-नहीं, नहीं , हम अपनी मामा को बहुत चाहता था। वैसा दुनिया में न होगा। हमारा बाप हमको बहुत छोटा-सा छोड़कर मर गया था। मां ने कोयले की खान में मजूरी करके हमको पाला ।

गौरा-तव तो वह देवी थीं। इतनी गरीबो का दुःख सहकर भी तुम्हे दूसरे