उसकी सूरत बदल गई थी । यौवन-काल का वह कान्तिमय साहस, सदय छवि नाम को भी न थी। बाल खिचड़ी हो गये थे, गाल पिचके हुए, लाल आँखों से कुवासना और कठोरता झलक रही थी। पर था वह मॅगरू । गौरा के जी में प्रबल इच्छा हुई कि स्वामी के पैरों से लिपट जाऊँ, चिल्लाने को जी चाहा, पर संकोच ने मन को रोका । बूढे ब्राह्मण ने बहुत ठीक कहा था। स्वामी ने अवश्य मुझे बुलाया था और मेरे आने से पहले यहां चले आये। उसने अपनी सगिनी के कान मे कहा-बहन, तुम उस ब्राह्मण को व्यर्थ हो बुरा कह रही थीं । यहो तो वह हैं जो यात्रियों के नाम लिख रहे हैं।
स्त्री-सच, खूब पहचानती हो ?
गौरा-बहन, क्या इसमें भी धोखा हो सकता है ?
स्त्री-तत्ब तो तुम्हारे भाग जग गये । मेरी भी सुध लेना।
गौरा-भला बहन, ऐसा भी हो सकता है कि यहां तुम्हें छोड़ दूं।
मॅगरु यात्रियों से बात-बात पर बिगड़ता था, बात-बात पर गालियां देता था। कई आदमियों को ठोकर मारे और कई को केवल अपने गाँव का ज़िला न बता सकने के कारण धक्का देकर गिरा दिया। गौरा मन हो-मन गड़ी जाती थी। साथ ही अपने स्वामी के अधिकार पर उसे गर्व भी हो रहा था। आखिर मैंगरू उसके सामने अकर खड़ा हो गया और कुचेष्टा-पूर्ण नेत्रों से देखकर बोला-तुम्हारा क्या नाम है ?
गौरा ने कहा --गौरा।
मॅगरु चौंक पड़ा, फिर बोला--घर कहाँ है ?
गौरा ने कहा-मदनपुर, जिला बनारस ।
यह कहते-कहते उसे हँसी आ गई। मगरू ने अनकी उसकी ओर ध्यान से देखा, तब लपककर उसका हाथ पकड़ लिया और बोला-गौरा ! तुम यहाँ कहाँ ? मुझे पहचानतो हो
गौरा रो रही थी, मुंह से बात न निकली।
मॅगरू फिर बोला-तुम यहाँ कैसे आई ?
गौरा खड़ी हो गई, आंसू पोछ डाले ओर मॅगरू की और देखकर बोलो-तुम्ही ने तो बुला भेजा था।
मैंगरू-मैंने ! मैं तो सात साल से यहाँ हूँ।