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नया विवाह

'मुझे घर के धन्धे को रत्ती-सर भी परवा नहीं-वाल की नोक बराबर भी नहीं। मैं चाहता हूँ कि तुम्हारा मिज़ाज़ बिगड़े और तुम इस गृहस्थी की चक्की से दूर रहो। और तुम मुझे बार-बार आप क्यों कहती हो ? मैं चाहता हूँ, तुम मुझे तुम कहो, तू कहो, गालियां दो, धौल जमाओ। तुम तो मुझे 'आप' कहकर जैसे देवता के सिंहासन पर बैठा देती हो। मैं अपने घर में देवता नहीं, चंचल बालक बनना चाहता हूँ।

आशा ने मुसकिराने की चेष्टा करके कहा -भला मैं आपको 'तुम' कहूँगी । तुम घराबरवालों को कहा जाता है कि बड़ों को,!

मुनीम ने एक लाख के घाटे की खबर सुनाई होती तो भी शायद लालाजी को इतना दुख न होता जितना आशा के इन कठोर शब्दों से हुआ । उनका सारा उत्साह, सारा उल्लास जैसे ठढा पड़ गया। सिर पर बाँकी रखी हुई फूलदार टोपी, गले में पड़ी हुई जोगिये रंग की चुनी हुई रेशमी चादर, वह तजेब का बेलदार कुर्त्ता जिसमें सोने के बटन लगे हुए थे, यह सारा ठाट जैसे उन्हें हास्य-जनक जान पड़ने लगा, जैसे वह सारा नशा किसी मंत्र से उतर गया हो ।

निराश होकर वोले-तो तुम्हें चलना है या नहीं ?

'मेरा जी नहीं चाहता।'

'तो मैं भी न जाऊँ?'

'मैं आपको कब मना करती हूँ ।'

'फिर 'आप' कहा।

लीला ने जैसे भीतर से ज़ोर लगाकर कहा–'तुम' और उसका मुखमण्डल लज्जा से आरक्क हो गया।

'हां, इसी तरह 'तुम' कहा करो। तो तुम नहीं चल रहो हो ? अगर मैं कहूँ तुम्हें चलना पड़ेगा तो?'

'तब चलूंगी। आपकी आज्ञा मानना मेरा धर्म है ।'

लालाजी आज्ञा न दे सके। आज्ञा और धर्म जैसे शब्द उनके कानों में चुभने से लगे। खिसियाये हुए बाहर को चल पड़े। उस वक्त आशा को उन पर दया आ गई । बोलो-तो कब तक लौटोगे ?

'मैं नहीं जा रहा हूँ।'