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नया विवाह


नयी बात न थी। इधर कई साल से उसे इसका कठोर अनुभव हो रहा था कि उसकी घर में कद्र नहीं है। वह अक्सर इस समस्या पर विचार भी किया करती, पर अपना कोई अपराध वह न पाती। वह पति की सेवा अब पहले से कहीं ज्यादा करती, उनके कार्य-भार को हलका करने की बराबर चेष्टा करती रहती, बराबर प्रसन्नचित्त रहती, कभी उनकी इच्छा के विरुद्ध कोई काम नहीं करती ! अगर उसको जवानी ढल चुकी थी तो इसमें उसका क्या अपराध था ? किसकी जवानी सदैव स्थिर रहती है। अगरः अब उसका स्वास्थ्य उतना अच्छा न था तो इसमें उसका क्या दोष ? उसे बे कसूर क्यों दण्ड दिया जाता है।

उचित तो यह था कि २५ साल का साहचर्य अब एक गहरी मानसिक और आत्मिक अनुरूपता का रूप धारण कर लेता, जो दोष को भी गुण बना लेता है, जो पक्के फल की तरह ज्यादा रसीला, ज्यादा मीठा, ज्यादा सुन्दर हो जाता है । लेकिन लालाजी का चणिक हृदय हर एक पदार्थ को वाणिज्य को तराजू से तौलता था। बूढी गाय जब न दूध दे सक्ती है, न बच्चे, तब उसके लिए गोशाला ही सबसे अच्छी जगह है। उनके विचार में लीला के लिए इतना ही काफी था कि घर की मालकिन बनी रहे, आराम से खाय और पड़ी रहे। उसे अख्तियार है चाहे जितने ज़ेवर वन- वाये, चाहे जितना स्नान व पूजा करे, केवल उनसे दूर रहे । मानव प्रकृति की जटिलता का एक रहस्य यह था कि डगामल जिस आनन्द से लीला को वंचित रखना. चाहते थे, जिसकी उसके लिए कोई ज़रूरत ही न समझते थे, खुद उसी के लिए सदैव प्रयत्न करते रहते थे। लीला ४० वर्ष की होकर बूढी समझ ली गई थी, किन्तु वे पैतालीस के होकर अभी जवान ही थे, जवानी के उन्माद और उल्लास से भरे हुए लीला से अब उन्हें एक तरह की अरुचि होती थी और वह दुखिया जब अपनी त्रुटियों का अनुभव करके प्रकृति के निर्दय आघातों से बचने के लिए रंग व रोशन की आड़ लेती; तब लालाजी उसके बूढे नखरो से और भी घृणा करने लगते। वे कहते--- वाह री तृष्णा ! सात लड़को की तो मां हो गई, वाल खिचड़ी हो गये, चेहरा धुले हुए. फलालैन की तरह सिकुड़ गया, मगर आपको अभी महावर, सेंटुर, मेहदी और उबटन हवस बाकी ही है । औरतों का स्वभाव भी कितना विचित्र है। न जाने क्यों बनाव- सिगार पर इतना जान देती हैं ? पूछी, अब तुम्हे और क्या चाहिए। क्यो नहीं मन को समझा लेती कि जवानी बिदा हो गई और इन उपादानों से वह वापस नहीं बुलाई