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लाटरी

सहसा दीवानखाने में झड़प की आवाज सुनकर मेरा ध्यान उधर चला गया। यहां दोनो ठाकुर बैठा करते थे। उनमें ऐसी मैत्री थी, जो आदर्श भाइयों में हो सकती है। राम और लक्ष्मण में भी इतनी ही रही होगी। झड़प की तो बात ही क्या, मैंने उनमे कभी विवाद होते भी न सुना था। बडे ठाकुर जो कह दें, वह छोटे ठाकुर के लिए कानून था और छोटे ठाकुर की इच्छा देखकर ही बड़े ठाकुर कोई बात कहते थे। हम दोनों को आश्चर्य हुआ । दीवानखाने के द्वार पर जाकर खड़े हो गये। दोनो भाई अपनी-अपनी कुरसियो से उठकर खड़े हो गये थे, एक-एक कदम आगे भी बढ़ आये थे, आँखें लाल, मुख विकृत, त्यौरिया वढी हुई, मुट्ठियाँ बंधी हुई। मालूम होता था, वस हाथा-पाई हुआ ही चाहती है।

छोटे ठाकुर ने हमें देखकर पीछे हटते हुए कहा-सम्मिलित परिवार में जो कुछ भी और कहीं से भी और किसी के नाम भी आये, वह सबका है, बराबर ।

बड़े ठाकुर ने विक्रम को देखकर एक कदम आगे बढाया-

हरगिज नहीं , अगर मैं कोई जुर्म करूँ, तो मैं पकड़ा जाऊँगा, सम्मिलित परिवार नहीं । मुझे सजा मिलेगी, सम्मिलित परिवार को नहीं । यह वैयक्तिक प्रश्न है।

'इसका फैसला अदालत से होगा।'

'शौक से अदालत जाइए , अगर मेरे लड़के, मेरी बीवी, या मेरे नाम लाटरी निकली, तो आपका उससे कोई सम्बन्ध न होगा, उसी तरह जैसे आपके लाटरी निकले, तो मुझसे, मेरी बीवी से या मेरे लड़के से उससे कोई सम्बन्ध न होगा।'

'अगर मैं जानता आपकी ऐसी नीयत है, तो मैं भी बीबी-बच्चो के नाम से टिकट ले सकता था।

'यह आपकी गलती है।

'इसीलिए कि मुझे विश्वास था, आप भाई हैं।'

'यह जुआ है, आपको समझ लेना चाहिए। जुए की हार-जीत का खानदान पर कोई असर नहीं पड़ सकता , अगर आप कल को दस-पाँच हजार रेस में हार आयें, तो खानदान उसका जिम्मेदार न होगा।'

'मगर भाई का हक दबाकर आप सुखी नहीं रह सकते।'

'आप न ब्रह्मा हैं, न ईश्वर, न कोई महात्मा ।