खुदाई फौजदार
सेठ नानकचन्द को आज फिर वही लिफाफा मिला और वही
लिखावट सामने
आई, तो उनका चेहरा पीला पड़ गया। लिफाफा खोलते हुए हाथ और हृदय-
दोनो काँपने लगे। खत में क्या है, यह उन्हें खूब मालूम था। इसी तरह के दो खत
पहले पा चुके थे। इस तीसरे खत में भी वही धमकियाँ हैं, इसमें उन्हें सन्देह न
था। पत्र हाथ में लिये हुए आकाश की ओर ताकने लगे। वह दिल के मजबूत
आदमी थे, धमकियो से डरना उन्होंने न सीखा था, मुर्दो से भी अपनी रकम वसूल कर
लेते थे। दया या उपकार-जैसी मानवीय दुर्बलताएँ उन्हे छू भी न गई थीं, नहीं महाजन
ही कैसे बनते ! उस पर धर्मनिष्ठ भी थे। हर पूर्णमासी को सत्यनारायण की कथा सुनते
थे। हर मङ्गल को महावीरजी को लड्डु चढाते थे, नित्य-प्रति जमुना में स्नान करते
थे और हर एकादशी को व्रत रखते और ब्राह्मणों को भोजन कराते थे। और इधर
जबसे घी मे करारा नफा होने लगा था, एक धर्मशाला बनवाने की फिक्र में थे।
जमीन ठीक कर ली थी। उनके असामियों में सैकड़ो ही थवई और बेलदार थे, जो
केवल सूद मे काम करने को तैयार थे। इन्तजाम यही था कि कोई ईट और चूने-
वाला फॅस जाय और दस-बीस हज़ार का दस्तावेज़ लिखा ले, तो सूद मे ईट और
चूना भी मिल जाय। इस धर्म-निष्ठा ने उनकी आत्मा को और भी शक्ति प्रदान कर
दी थी। देवताओ के आशीर्वाद और प्रताप से उन्हें कभी किसी सौदे में घाटा नहीं
हुआ और भीषण परिस्थितियों में भी वह स्थिरचित्त रहने के आदी थे , किन्तु जब-
से यह धमकियों से भरे हुए पत्र मिलने लगे थे, उन्हे बरबस तरह-तरह की शकाएँ
व्यथित करने लगी थीं। कहीं सचमुच डाकुओं ने छापा मारा, तो कौन उनकी सहा-
यता करेगा। दैवी बाबाओ में तो देवताओं की सहायता पर वह तकिया कर सकते
थे ; पर सिर पर लकपती हुई इस तलवार के सामने वह श्रद्धा कुछ काम न देती थी।
रात को उनके द्वार पर केवल एक चौकीदार रहता है। अगर दस-बीस हथियार-