किनारे एक पहाड़ी टोला है। उसी पर कई दिन से एक साधु ने अपना आसन
जमाया है । नाटे कद का आदमी है, काले तवे का सा रंग, देह गठी हुई है। यह
नेउर है, जो साधु-वेश मे दुनिया को धोखा दे रहा है-वही सरल, निष्कपट नेउर,
जिसने कभी पराये माल की ओर आंख नहीं उठाई, जो पसीना की रोटी खाकर मगन
था। घर और गांव की और बुधिया की याद एक क्षण भी उसे नहीं भूलती,
इस जीवन में फिर कोई दिन आयेगा कि वह अपने घर पहुंचेगा और फिर उस
संसार मे हँसता-खेलता अपनी छोटी-छोटी चिन्ताओं और छोटी-छोटी आशाओं के
चोच आनन्द से रहेगा ! वह जीवन कितना सुखमय था | जितने थे, सब अपने थे,
सभी आदर करते थे, सहानुभूति रखते थे। दिन भर की मजूरी थोड़ा-सा अनाज या
थोड़े-से पैसे लेकर घर आता था, तो बुधिया कितने मोठे स्नेह से उसका स्वागत
करती थी। वह सारी मेहनत, सारी थकावट जैसे उस मिठास मे सनकर और मीठी
हो जाती थी । हाय ! वह दिन फिर कब आयेंगे ? न जाने वुधिया कैसे रहतो होगी।
कौन उसे पान को तरह फेरेगा, कोन उसे पकाकर खिलायेगा। घर में पैसा भी तो
नहीं छोड़ा, गहने तक डुबा दिये। तव उसे क्रोध आता कि उस बाबा को पा जाय,
तो कच्चा हो खा जाय । हाय लोभ ! लोभ !
उसके अनन्य भक्तों में एक सुन्दरी युवती भी थी, जिसके पति ने उसे त्याग दिया था। उसका बाप फौजी पेंशनर था । एक पढ़े-लिखे आदमी से लड़की का विवाह किया , लेकिन लड़का माँ के कहने में था और युवती को अपनी सास से न पटती थी। वह चाहती थी, शौहर के साथ सास से अलग रहे, शौहर अपनी माँ से अलग होने पर राजी न हुआ। बहू रूठकर मैके चली आई। तबसे तीन साल हो गये थे ओर ससुराल से एक बार भी बुलावा न आया, न पतिदेव ही आये। युवती किसी तरह पति को अपने वश मे कर लेना चाहती थी। महात्माओं के लिए किसीका दिल फेर देना ऐसा क्या मुश्किल है । हाँ, उनको दया चाहिए ।
एक दिन उसने एकान्त मे बाबाजी से अपनी विपत्ति कह सुनाई। नेउर को जिस शिकार की टोह थी, वह आज मिलता हुआ जान पड़ा । गम्भीर भाव से बोला- बेटी, मैं न सिद्ध हूँ, न महात्मा, न मैं संसार के झमेले मे पड़ता हूँ, पर तेरी सरधा और परेम देखकर तुझ पर दया आती है। भगवान ने चाहा, तो तेरा मनोरथ पूरा हो जायगा।