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मानसरोवर

यह भी उन्हीं को कृपा है । मैं जो मुर्ख अज्ञानी तब था, वही अब हूँ। हाँ, इस बात का मुझे गर्व है कि भगवान् ने मुझे ऐसा वीर बालक दिया। अब आप लोग मुझे बधाइयाँ दें। किसे ऐसी वीर-गति मिलती है। अन्याय के सामने जो छाती खोलकर खड़ा हो जाय, वही तो सच्चा वीर है ; इसलिए बोलिए-वीर कृष्णचन्द्र की जय !

एक हज़ार गलो से जय-ध्वनि निकली और उसी के साथ सव-के-सब हल्ला मारकर दफ्तर के अन्दर घुस गये। गारद के जवानों ने एक बन्दूक भी न चलाई। इस विलक्षण काड ने इन्हें स्तम्भित कर दिया था ।

मैनेजर ने पिस्तौल उठा ली और खड़ा हो गया। देखा, तो सामने सेठ खूबचन्द ।

लज्जित होकर बोला-मुझे बड़ा दुख है कि आज दैवगति से ऐसो दुर्घटना हो गई , पर आप खुद समझ सकते हैं, मैं क्या कर सकता था।

सेठजी ने शान्त स्वर मे कहा-ईश्वर जो कुछ करता है, हमारे कल्याण के लिए ही करता है। अगर इस बलिदान से मजूरों का कुछ हित हो, तो मुझे इसका ज़रा भी खेद न होगा।

मैनेजर सम्मान-भरे स्वर मे बोला-लेकिन इस धारणा से तो आदमी को सन्तोष नहीं होता। ज्ञानियों का मन भी चंचल हो ही जाता है ।

सेठजी ने इस प्रसंग का अन्त कर देने के इरादे से कहा-तो अब आप क्या निश्चय कर रहे हैं ?

मैनेजर सकुचाता हुआ बोला- मैं तो इस विषय मे स्वतन्त्र नहीं हूँ। स्वामियों की जो आज्ञा थी, उसका मैं पालन कर रहा था।

सेठजी कठोर स्वर मे बोले-आगर आप समझते हैं कि मजूरो के साथ अन्याय हो रहा है, तो आपका धर्म है कि उनका पक्ष लीजिए। अन्याय मे सहयोग करना अन्याय करने ही के समान है।

एक तरफ तो मजूर लोग कृष्णचन्द्र के दाह-संस्कार का आयोजन कर रहे थे, दूसरी तरफ दफ्तर में मिल के डाइरेक्टर और मैनेजर सेठ खूबचन्द के साथ बैठे कोई ऐसी व्यवस्था सोच रहे थे कि मजूरो के प्रति इस अन्याय का अन्त हो जाय ।

दस बजे सेठजी ने बाहर निकलकर मजूरों को सूचना दी-मित्रो, ईश्वर को धन्यवाद दो कि उसने तुम्हारी विनय स्वीकार कर ली। तुम्हारी हाज़िरी के लिए अब नये नियम बनाये जायेंगे और जुरमाने की वर्तमान प्रथा उठा दी जायगी।