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मानसरोवर

भोग-लिप्सा आदमी को स्वार्थन्ध बना देती है। फिर भी सेठजी की आत्मा अभी इतनी अभ्यस्त और कठोर न हुई थी कि एक निरपराध की हत्या करके उन्हें ग्लानि न होती। वह सौ-सौ युक्तियों से बात को समझाते थे, लेकिन न्याय-बुद्धि किसी युक्ति की स्वीकार न करती थी। जैसे यह धारणा उनके न्याय-द्वार पर बैठी सत्याग्रह कर रही थी और वरदान लेकर ही टलेगी। वह घर पहुंचे तो इतने दुखी और हताश थे, साक्षी हार्थों में हथकड़ियाँ पड़ी हो।

प्रमीला ने घबराई हुई दाज़ में पूछा हड़ताल का क्या हुआ? अभी हो रही है या बन्द हो गई है मजूरी ने दगा-फसाद तो नहीं किया? मैं तो बहुत डर रही थी।

खूबचन्द ने आरामकुरसी पर लेटकर एक लम्बी साँस ली और बोले - कुछ न पूछो, किसी तरह जान बच गई, बस यही समझ लो। पुलिस के आदमी तो भाई खड़े हुए, मुझे लोगों ने घेर लिया। बारे किसी तरह जान लेकर भागा। जब मैं चारों तरफ से घिर गया, तो क्या करता, मैंने भी रिवाल्वर छोड़ दिया।

प्रमीला भयभीत होकर बोली-कोई जख्मी तो नहीं हुआ है।

'वही गोपीनाथ जख्मी हुआ, जो मजूरों की तरफ से मेरे पास आया करता था। उसका गिरना था कि एक हजार आदमियों ने मुझे घेर लिया। मैं दौड़कर रूई की गांठों पर चढ़ गया। जान बचने की कोई आशा न थी। मजूर गाँठों में आग लगाने जा रहे थे।

प्रमीला काँप उठी।

'सहसा वही जख्मी आदमी उठकर मजूरों के सामने आया और उन्हें समझाकर मेरी प्राण-रक्षा की। वह न आ जाता, तो मैं किसी तरह जीता ने बचता।'

'ईश्वर ने बड़ी कुशल की। इसीलिए मैं मना कर रही थी कि अकेले न जाओ। उस आदमी को लोग अस्पताल ले गये होगे?'

सेठजी ने शोक-भरे स्वर में कहा- मुझे भय है कि वह मर गया होगा। जब मैं मोटर पर बैठा, तो मैंने देखा, वह गिर पड़ा और बहुत-से आदमी उसे घेरकर खड़े हो गये। न-जाने उसकी क्या दशा हुई।

प्रमीला उन देवियों मे थी, जिनकी नसों में रक्त की जगह श्रद्धा बहती है। स्नान,