सकते हैं । पिटने से वह नहीं डरते। यह तो उनकी फतह होगी , लेकिन शीरी को
भोग-लालसा पर कैसे विजय पायें । बुढ़िया मामा जब मुंह लटकाये आकर उसके सामने
रोटियां और सालन परोस देगी, तब शीरी के मुख पर कैसी विदग्ध विरक्ति छा
जायगी ! कहीं वह खड़ी होकर उनको और अपनी किस्मत को कोसने न लगे। नहीं,
अभाव की पूर्ति सौजन्य से नहीं हो सकती। शीरी का वह रूप कितना विकराल होगा।
सहसा एक कार मामने से आतो दिखाई दी। कावसजी ने देखा-शापूरजी बैठे हुए थे। उन्होने हाथ उठाकर कार को रुकवा लिया और पीछे दौड़ते हुए जाकर शापूरजी से बोले- --आप कहाँ जा रहे हैं।
'यो ही, जरा घूमने निकला था।'
'शोरी वानू पार्क में हैं, उन्हे लेते जाइए।'
'वह तो मुझसे लड़कर आई है कि अब इस घर मे कभी कदम न रखूगी।'
'और आप सैर करने जा रहे हैं ?'
'तो क्या आप चाहते है, बैठकर रोऊँ ?'
'वह बहुत रो रही है।
'सच ।'
'हां, बहुत रो रही हैं।
'तो शायद उसको बुद्धि जाग रही है।'
'तुम इस समय उन्हे मना लो, तो वह हर्ष से तुम्हारे साथ चली जायँ।'
'मैं परीक्षा करना चाहता हूँ कि वह बिना मनाये मानती है या नहीं।' 'मैं बड़े असमंजस में पड़ा हुआ हूँ। मुझ पर दया करो, तुम्हारे पैरों पड़ता हूँ।'
'जीवन में जो थोड़ा सा आनन्द है, उसे मनावन के नाट्य मे नहीं छोड़ना चाहता।'
कार चल पड़ी और कावसजी कर्तव्य-भ्रष्ट से वहीं सड़े रह गये। देर हो रही
थी। सोचा-कहीं शीरी यह न समझ ले कि मैंने भी उसके साथ दगा की ; लेकिन
जाऊँ भी तो क्योंकर। अपने सम्पादकीय कुटीर में उस देवो को प्रतिष्ठित करने की
कल्पना ही उन्हें हास्यास्पद लगी । वहाँ के लिए तो गुलशन ही उपयुक्त है। कुढ़ती
है, कठोर बातें कहती है, रोती है, लेकिन वक्त से भोजन तो दे देती है। फटे हुए
कपड़ों को रफू तो कर देती है, कोई मेहमान आ जाता है, तो कितने प्रसन्न-मुख से
उसका आदर-सत्कार करती है, मानो उसके मन में आनन्द-ही-आनन्द है। कोई छोटी-