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मानसरोवर


कि अगर वह बहुत घबराये, तो बतला देना। मैं सुनते ही लखनऊ भागा और उसे घसीट लाया। घाते में यह बच्चा भी मिल गया ।

उसने बच्चे को उठाकर मेरी तरफ बढाया-मानो कोई खिलाड़ी तमगा पाकर दिखा रहा हो।

मैंने उपहास के भाव से पूछा-अच्छा, यह लड़का भी मिल गया ? शायद इसी लिए वह यहां से भागी थी। है तो तुम्हारा ही लड़का ?

'मेरा काहे को है वावूजी, आपका है, भगवान् का है।'

'तो लखनऊ में पैदा हुआ ?'

'हाँ बाबूजी, अभी तो कुल एक महीने का है।'

'तुम्हारा ब्याह हुए कितने दिन हुए?'

'यह सातवां महीना जा रहा है।'

'तो शादी के छठे महोने पैदा हुआ ?'

'और क्या बाबूजी।'

'फिर भी तुम्हारा लड़का है ?'

'हाँ, जी।'

'कैसी बेसिर-पैर की बातें कर रहे हो ?'

मालूम नहीं, वह मेरा आशय समझ रहा था, या बन रहा था। उसी निष्कपट भाव से बोला---मरते-मरते बची बाबूजी, नया जन्म हुआ। तीन दिन तीन रात छटपटाती रही। कुछ न पूछिए ।

मैंने अब जग व्यंग्य-भाव से कहा-लेकिन छ महीने मे लड़का होते आज ही सुना।

यह चोट निशाने पर जा बैठी।

मुस्कराकर बोला-अच्छा, वह बात। मुझे तो उसका ध्यान भी नहीं आया । इसी भय से तो गोमती भागी थी। मैंने कहा-~-गोमती, अगर तुम्हारा मन मुझसे नहीं मिलता, तो मुझे छोड़ दो। मैं अभी चला जाऊँगा और फिर कभी तुम्हारे पास न आऊँगा। तुमको जब कुछ काम पड़े, तो मुझे लिखना, मैं भरसक तुम्हारी मदद करूँगा। मुझे तुमसे कुछ मलाल नहीं । मेरी आँखो मे तुम अब भी उतनी ही भली हो। अब भी मैं तुम्हे उतना ही चाहता हूँ। नहीं, अब मैं तुम्हें और ज्यादा