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मानसरोवर


थे, उनके कैसे शुभचिन्तक थे। उस वक्त तो एसा मालूम होता था, मानो आपको कोई दुर्लभ पदार्थ मिला जा रहा है। मानो मुक्ति का द्वार खुल गया है। लोगों ने कितना कहा कि यह स्त्री विश्वास के योग्य नहीं है, कितनो को दगा दे चुकी है, तुम्हारे साथ भी दगा करेगी , लेकिन इसके कानों पर जूं तक न रेंगी। अब मिलें, तो जरा उनका मिज़ाज पुछूं, कहूँ-क्यों महाराज, देवीजी का यह वरदान पाकर प्रसन्न हुए या नहीं ? तुम तो कहते थे, वह ऐसी है और वैसी है, लोग उस पर केवल दुर्भावना के कारण दोष आरो- पित करते हैं । अब बतलाओ, किसको भूल थी ?

उसी दिन सयोगवश गंगू से बाजार मे भेंट हो गई । घबराया हुआ था, चद- हवास था, बिलकुल खोया हुआ। मुझे देखते ही उसको आँखो मे आँसू भर आये, लज्जा से नहीं, व्यथा से । मेरे पास आकर बोला-- बाबूजी, गोमतो ने मेरे साथ भी विश्वासघात किया । मैंने कुटिल आनन्द से , लेकिन कृत्रिम सहानुभूति दिखाकर, कहा-तुमसे तो मैंने पहले ही कहा था , लेकिन तुम माने ही नहीं, अब सब्र करो। इसके सिवा और क्या उपाय है । हपये-पैसे ले गई या कुछ छोड़ गई ?

गंगू ने छाती पर हाथ रखा । ऐसा जान पड़ा, मानो मेरे इस प्रश्न ने उसके हृदय को विदीर्ण कर दिया है।

'अरे बाबूजी, ऐसा न कहिए, उसने धेले को चीज भी नहीं छुई। अपना जो कुछ था, वह भी छोड़ गई । न जाने मुझमे क्या बुराई देखी। मैं उसके योग्य न था और क्या कहूँ। वह पढ़ी-लिखी थी, मै करिया अक्षर भैस बराबर । मेरे साथ इतने दिन रही, यहो बहुत था। कुछ दिन और उसके साथ रह जाता, ता आदमी बन जाता । उसका आपसे कहाँ तक बखान करू हजूर, औरो के लिए चाहे जो कुछ रही हो, मेरे लिए तो किसी देवता का आनीर्वाद थी । न-जाने मुझसे क्या ऐसी खता हो गई , मगर कसम ले लोजिए, जो उसके मुत्र पर मैल तक आया हो। मेरी औकात ही क्या है बाबूजी, दस- बारह आने का मंजूर है, पर इसी मे उसके हाथों इतनी बरक्कत थी कि कभी कमी नही पड़ी।'

मुझे इन शब्दों से घोर निराशा हुई। मैने समझा था, वह उसकी बेवफाई की कथा कहेगा और मै उसकी अन्ध-भक्ति पर कुछ सहानुभूति प्रकट करूँगा , मगर उस सूर्ख की आँखें अब तक नहीं खुली। अब भी उसीका मन्त्र पढ रहा है । अवश्य ही इसका चित्त कुछ अव्यवस्थित है।