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बालक

मैं निरर्थक रुढियों और व्यर्थ के बन्धनों का दास नहीं हूँ , लेकिन जो आदमी एक दुष्टा से विवाह करे, उसे अपने यहाँ रखना वास्तव मे जटिल समस्या थी। आये दिन टण्टे-बखेड़े होगे, नयी-नयी उलझनें पैदा होगी, कभी पुलिस दौड़ लेकर आयेगी, कभी मुकदमे खड़े होगे। सभव है, चोरी की वारदातें भी हों। इस दलदल से दूर रहना ही अच्छा । गंगू क्षुधा-पीड़ित प्राणो को भांति रोटी का टुकड़ा देखकर उसकी और लपक रहा है । रोटो जूठी है, सूखी हुई है, खाने योग्य नहीं है, इसकी उसे परवाह नहीं , उसको विचार-बुद्धि से काम लेना कठिन था। मैने उसे पृथक कर देने ही में अपनी कुशल समझी।

( २ )

पांच महीने गुज़र गये। गंगू ने गोमती से विवाह कर लिया था ओर उसी मुहल्ले में एक खपरैल का मकान लेकर रहता था। वह अब चाट का खोंचा लगाकर गुजर-बसर करता था। मुझे जब कभी बाजार मे मिल जाता, तो मैं उसका क्षेम-कुशल पूछता । मुझे उसके जीवन से विशेष अनुराग हो गया था। यह एक सामाजिक प्रश्न की परीक्षा थी--सामाजिक ही नहीं, मनोवैज्ञानिक भो । मैं देखना चाहता था इसका परिणाम क्या होता है । मैं गंगू को सदैव प्रसन्न-मुख देखता। समृद्धि और निश्चिन्तता से मुख पर जो एक तेज और स्वभाव में जो एक आत्म-सम्मान पैदा हो जाता है, वह मुझे यहाँ प्रत्यक्ष दिखाई देता था । रुपये-बीस आने की रोज बिक्री हो जातो थी। इसमे लागत निकालकर आठ-दस आने वच जाते थे । यही उसकी जिविका थी , किन्तु इसमे किसी देवता का वरदान था। क्योकि इस वर्ग के मनुष्यो में जो निर्लज्जता और विपन्नता पाई जाती है, इसका वहाँ चिह्न तक न था। उसके मुख पर आत्म-विकास और आनन्द की झलक थी, जो चित्त की शान्ति से हो आ सकती है।

एक दिन मैंने सुना कि गोमती गंगू के घर से भाग गई है। कह नहीं सकता, क्यों मुझे इस खबर से एक विचित्र आनन्द हुआ। मुझे गंगू के सन्तुष्ट और सुखी जीवन पर एक प्रकार की ईषर्या होती थी। मैं उसके विषय में किसी अनिष्ट की, किसी घातक अनर्थ को, किसी लज्जास्पद घटना की प्रतीक्षा करता था । इस खबर से ईर्ष्या को सान्त्वना मिली । आखिर वही बात हुई, जिसका मुझे विश्वास या । आखिर बचा को अपनी अदूरदर्शिता का दण्ड भोगना पड़ा। अब देखें, बचा कैसे मुँह दिखाते हैं । अब आँखें खुलेंगी और मालूम होगा कि लोग जो उन्हें इस विवाह से रोक रहे