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मानसरोवर


"घर चला आये। जब तुम मे इतनी अकड़ और तुनुकमिजाजी है, तो वह तो जिले का बादशाह है ; अगर उसे कुछ अभिमान भी हो, तो उचित है। इसे उसकी कम- ज़ोरी कहो, बेहूदगी कहो, मूर्खता कहो, उजण्डता कहो, फिर भी उचित है। देवता होना गर्व की बात है । लेकिन मनुष्य होना भी अपराध नहीं !

और मैं तो कहता हूँ--ईश्वर को धन्यवाद दो कि हाकिम-ज़िला तुम्हारे घर नहीं आये ; वरना तुम्हारी कितनी भद होती। उनके आदर-सत्कार का सामान तुम्हारे पास कहाँ था ? गत को एक कुरसी भी तो नहीं है। उन्हें क्या तीन टांँगवाले सिंहा- सन पर बैठाते या मटमैले जाजिम पर ? तीन पैसे की चौबीस बीड़ियां पीकर दिल खुश कर लेते हो। है सामर्थ्य रुपये के दो सिगार खरीदने की ? तुम तो इतना भी नहीं जानते, वह सिगार मिलता कहाँ है, उसका नाम क्या है। अपना भाग्य सराहो कि अफसर साहब तुम्हारे घर नहीं आये और तुम्हें बुला लिया। चार-पांच रुपये विगढ़ भी जाते और लज्जित भी होना पड़ता। और कहीं तुम्हारे परम दुर्भाग्य और पापों के दण्ड-स्वरूप उनकी धर्म-पत्नी भी उनके साथ होती, तब तो तुम्हें धरती में समा जाने के सिवा और कोई ठिकाना न था। तुम या तुम्हारी धर्मपली उस महिला का सत्कार कर सकती थी ? तुम्हारी तो घिग्घी बॅध जाती साहव, बदहवास हो जाते ! वह तुम्हारे दीवानखाने तक ही न रहती, जिसे तुमने गरीवामऊ ढङ्ग से सजा रखा है । वहाँ तुम्हारी गरीबी अवश्य है , पर फूहड़पन नहीं । अन्दर तो पग-पग पर फूहड़- पन के दृश्य नज़र आते । तुम अपने घर में फटे-पुराने पहनकर और अपनी विपन्नता में मगन रहकर जिन्दगी बसर कर सकते हो , लेकिन कोई भी आत्माभिमानो आदमी यह पसन्द नहीं कर सकता कि उसकी दुरवस्था दूसरों के लिए विनोद को वस्तु बने । इन लेडी साहबा के सामने तो तुम्हारी जबान वन्द हो जाती ।

चुनाचे मैंने हाकिम-ज़िला का निमन्त्रण स्वीकार कर लिया और यद्यपि उनके स्वभाव में कुछ अनावश्यक अफसरी को शान थी, लेकिन उनके स्नेह और उदारता ने उसे यथासाध्य प्रस्ट न होने दिया। कम-से-कम उन्होंने मुझे शिकायत का कोई मौका न दिया। अफसराना प्रकृति को तबदील करना उनकी शक्ति के बाहर था।

मैंने, इस प्रसंग को कोई महत्त्व देने की कोई बात भी न थी, महत्त्व न दिया। उन्होंने मुझे बुलाया, मैं चला गया। कुछ गप-शप किया और लौट आया। किसीसे इसका ज़िक्र करने की ज़रूरत ही क्या। मानो भाजी खरीदने बाजार गया था।