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मुफ्त का यश

आप । शायद यह लोग अपनी घरवालियों से भी अफसरी जताते होंगे। अपना पद उन्हें कभी नहीं भूलता।

एक मित्र ने, जो लतीफो के चलते-फिरते तिज़ोरी हैं, हिन्दुस्तानी अफसरों के विषय मे कई मनोरञ्जक घटनाएँ सुनाई। एक अफसर साहब ससुराल गये। शायद स्त्री को विदा कराना था । जैसा आम रिवाज है, ससुरजी ने पहले हो वादे पर लड़की को विदा करना उचित न समझा। कहने लगे-बेटा, इतने दिनों के बाद आई है, अभी कैसे बिदा कर दूं? भला छः महीने तो रहने दो। उधर धर्मपत्नीजी ने भी नाइन से सदेशा कहला भेजा-अभी मैं नहीं जाना चाहती। आखिर माता-पिता से भी तो मेरा कोई नाता है। कुछ तुम्हारे हाथ विक थोड़े ही गई हूँ। दामाद साहक अफसर थे, जामे से बाहर हो गये। तुरन्त घोड़े पर बैठे और सदर को राह ली । दूसरे ही दिन ससुरजी पर सम्मन जारी कर दिया । बेचारा बूढा आदमी तुरन्त लड़की को साथ लेकर दामाद की सेवा में जा पहुंचा । तब जाके उसकी जान बची। यह लोग ऐसे मिथ्याभिमानी होते हैं। और फिर तुम्हें हाकिम-जिला से लेना ही क्या है , अगर तुम कोई विद्रोहात्मक गल्प या लेख लिखोगे, तो फौरन् गिरफ्तार कर लिये जाओगे। हाकिम-जिला ज़रा भी मुरौवत न करेंगे।कह देंगे- यह गवर्नमेंट का हुक्म है, मैं क्या करूं। अपने लड़के के लिए कानूनगोई सा नायब तहसीलदारी की लालसा तुम्हे है नहीं , व्यर्थ क्यो दौटे जाओगे।

लेकिन, मुझे मित्रों की यह सलाह पसन्द न आई । एक भला आदमी जन निमन्त्रण देता है, तो उसे केवल इसलिए अस्वीकार कर देना कि हाकिम-जिला ने भेजा है, मुटमर्दी है। बेशक हाकिम साहब मेरे घर आ जाते, तो उनकी शान कम न होती। उदार हृदयवाला आदमी वेतकल्लुफ चला आता , लेकिन भाई, जिले की अफसरी बड़ी चीज़ है। और एक उपन्यासकार की इस्ती हो क्या है । इग्लैंड या अमेरिका में गल्प-लेसको और उपन्यासकारों की मेज पर निमन्त्रित होने में प्रधान मंत्री भी अपना गौरव समझेगा, हाकिम-जिला को तो गिनती ही क्या है, लेकिन यह भारतवर्ष है, जहाँ हरएक रईस के दरवार में कवि-सन्नाटो का एक जत्था रईस के कीर्तिगान के लिए जमा रहता था और आज भी ताजपोशी में हमारे लेखवृन्द बिना बुलाये राजाओं की खिदमत में हाजिर होते हैं, कसीदे पेश करते हैं और इनाम के लिला हाथ पसारते है। तुम ऐसे कहाँ के बड़े वह हो कि हाकिम-जिला तुम्हारे‌