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मानसरोवर


आखिर तुम्हें भी वही पागलपन सूझा, जो उस लौंडे को सूझा था। मैं कहता हूँ, आखिर तुम्हें कभी समझ आयेगी या नहीं ? क्या सारे संसार के सुधार का बोड़ा हमी ने उठाया है ? कौन राजा ऐसा है, जो अपनी प्रजा पर जुल्म न करता हो, उनके स्वत्त्वों का अपहरण न करता हो ; राजा ही क्यो, हम तुम सभी तो दूसरों पर अन्याय कर रहे हैं। तुम्हे क्या हक्क है कि तुम दर्जनों खिदमतगार रखो और उन्हें ज़रा-जरा- सी बात पर सजा दो ? न्याय और सत्य निरर्थक शब्द हैं, जिनकी उपयोगिता इसके सिवा और कुछ नहीं बुढधुओं की गर्दन मारी जाय और समझदारों की वाह-वाह हो । तुम और तुम्हारा लड़का उन्ही बुद्धुओ में हैं। और इसका दण्ड तुम्हें भोगना पड़ेगा। महाराज का हुक्म है कि तुम तीन घंटे के अन्दर रियासत से निकल जाओ, नहीं पुलिस आकर तुम्हे निकाल देगी। मैंने तो तय कर लिया है कि राजा साहब की इच्छा के विरुद्ध एक शब्द भी मुंह से न निकालूंगा । न्याय का पक्ष लेकर देख लिया। हैरानी और अपमान के सिवा और कुछ हाथ न आया । जिनकी मैंने हिमायत की थी, वे आज भी उसी दशा में हैं ; वल्कि उससे भी और बदतर । मै साफ कहता हूँ कि मैं तुम्हारी उद्दण्डताओं का तावान देने के लिए तैयार नहीं। मैं गुप्त रूप से तुम्हारी सहायता करता रहूँगा । इसके सिवा मैं और कुछ नहीं कर सकता।

सुनीता ने गर्व के साथ कहा---मुझे तुम्हारी सहायता की ज़रूरत नहीं। कहीं भेद खुल जाय, तो दीन बन्धु तुम्हारे ऊपर कोप का वज्र गिरा दें। तुम्हें अपना पद और सम्मान प्यारा है। उसका आनन्द से उपभोग करो। मेरा लड़का और कुछ न कर सकेगा, तो पाव-भर आटा तो कमा ही लायगा । मैं भी देखूगी कि तुम्हारी यह स्वामिभक्ति कब तक निभती है और कब तक तुम अपनी आत्मा की हत्या करते हो।

मेहता ने तिलमिलाकर कहा--तुम क्या चाहती हो कि फिर उसी तरह चारों तरफ ठोकरें खाता फिरूँ।

सुनीता ने घाव पर नमक छिड़का-नहीं, कदापि नहीं , अब तक तो मैं समझती थी, तुम्हें ठोकरें खाने मे मज़ा आता है, और पद और अधिकार से भी मूल्यवान् कोई वस्तु तुम्हारे पास है, जिसकी रक्षा के लिए तुम ठोकरें खाना अच्छा समझते हो। अब मालूम हुआ, तुम्हे अपना पद अपनी आत्मा से भी प्रिय है। फिर क्यों ठोकरें खाओ; मगर कभी-कभी अपना कुशल-समाचार तो भेजते रहोगे, या राजा साहब की आज्ञा लेनी पड़ेगी?