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कुसुम

तो स्त्री के लिए मानो प्रलय आ गया। मैं तो समझता हैं, कुसुम नहीं, उसका अभागा पति दया के योग्य है, जो कुसुम-जैसी स्त्री-रत्न की कद्र नहीं कर सकता। मुझे ऐसा सन्देह होने लगा कि इस लौंडे ने कोई दूसरा रोग पाल रखा है। किसी शिकारी के रङ्गीन जाल में फंसा हुआ है।

खैर, मैंने तीसरा पत्र खोला---

तीसरी पत्र

प्रियतम, अब मुझे मालूम हो गया कि मेरी ज़िन्दगी निरुद्देश्य है । जिस फुल को देखनेवाला, चुननेवाला कोई नहीं, वह खिले तो क्यों ? क्या इसी लिए कि मुरझाकर जमीन पर गिर पड़े और पैरों से कुचल दिया जाय ? मैं आपके घर में एक महीना रहकर दोबारा आई हूँ । ससुरजी ही ने मुझे बुलाया, ससुरजी ही ने मुझे बिदा कर दिया । इतने दिनों में आपने एक बार भी मुझे दर्शन न दिये । आप दिन में बीसों हो बार घर में आते थे, अपने भाई-बहनों से हँसते-बोलते थे, या मित्रों के साथ सेरतमाशे देखते थे , लेकिन मेरे पास आने को आपने कसम खा ली थी। मैने कितनी बार आपके पास सन्देशे भेजे, कितना अनुनय-विनय किया, कितनी बार बेशर्मी करके आपके कमरे में गई ; लेकिन आपने कभी मुझे आँख उठाकर भी न देखा । मे तो कल्पना ही नहीं कर सकती कि कोई भी इतना हृदयहीन हो सकता है। मैं प्रेम के योग्य नहीं, विश्वास के योग्य नहीं, सेवा करने के भी योग्य नहीं, तो क्या दया के भी योग्य नहीं है ? मैंने उस दिन कितनी मेहनत और प्रेम से आपके लिए रसगुल्ले बनाये ये। आपने उन्हे हाथ से छुआ भी नहीं। जब आप मुझसे इतने विरक्त हैं, तो मेरी समझ में नहीं आता कि जी कर क्या करूँ । न जाने वह कौन-सी आशा है, जो मुझे जीवित रखे हुए है। क्या अन्धेर है कि आप सज़ा तो देते हैं, पर अपराध नहीं बतलाते ! यह कौन-सी नीति है ! आपको ज्ञात है, इस एक मास में मैंने मुश्किल से दस दिन आपके घर में भोजन किया होगा। मैं इतनी कमज़ोर हो गई हूँ कि चलती हूँ तो आँखो के सामने अंधेरा छा जाता है। आँखों में जैसे ज्योति ही नहीं रही । हृदय में मानो रक्त का संचालन ही नहीं रहा। खैर, सता लीजिए, जितना जी चाहे, इस अनीति का अन्त भी एक दिन हो ही जायगा। अब तो मृत्यु ही पर सारी आशाएँ टिकी हुई हैं। अब मुझे प्रतीत हो रहा है कि मेरे मरने की खबर पाकर आप उछलेंगे और हल्की साँस लेंगे, आपकी आँखों से आँसू की एक बूंँद भी न गिरेगी ; पर‌