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कुत्सा

अपने घर में आदमी बादशाह को भी गाली देता है। एक दिन मैं अपने दो-तीन मित्रों के साथ बैठा हुआ एक राष्ट्रीय संस्था के व्यक्तियों की आलोचना कर रहा था। हमारे विचार में राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं को स्वार्थ और लोभ से ऊपर रहना चाहिए। ऊँचा और पवित्र आदर्श सामने रखकर ही राष्ट्र की सच्ची सेवा की जा सकती है। कई व्यक्तियों के आचरण ने हमे क्षुब्ध कर दिया था और हम इस समय बैठे अपने दिल का गुबार निकाल रहे थे। सम्भव था, उस परिस्थिति में पड़कर हम और भी गिर जाते , लेकिन उस वक्त तो हम विचारक के स्थान पर बैठे हुए थे और विचारक उदार बनने लगे, तो न्याय कौन करे ? विचारक को यह भूल जाने में विलम्ब नहीं होता कि उसमे भी कमजोरियाँ हैं और उसमें और अभियुक्त में केवल इतना ही अन्तर है कि या तो विचारक महाशय उस परिस्थिति में पड़े ही नहीं, या पड़कर भी अपनी चतुराई से बेदाग निकल गये।

पद्मा देवी ने कहा-महाशय 'क' काम तो बड़े उत्साह से करते हैं, लेकिन अगर हिसाब देखा जाय, तो उनके जिम्मे एक हजार से कम न निकलेगा।

उर्मिला देवी बोलीं-- खैर 'क' को तो क्षमा किया जा सकता है। उसके बाल- बच्चे हैं, आखिर उनका पालन-पोषण कैसे करे ? जब वह चौबीसों घण्टे सेवा-कार्य ही में लगा रहता है, तो उसे कुछ-न-कुछ तो मिलना ही चाहिए। उस योग्यता का आदमी ५००) वेतन पर भी न मिलता ; अगर इस साल-भर में उसने एक हजार खर्च कर डाला, तो बहुत नहीं है। महाशय 'ख' तो बिलकुल निहग हैं। 'जोरु न जाँता, अल्लाह मियाँ से नाता' ; पर उनके ज़िम्मे भी एक हजार से कम न होंगे। किसीको क्या अधिकार है कि वह गरीबो का धन मोटर की सवारी और यार-दोस्तो की दावत में उड़ा दे।

श्यामा देवी उद्दण्ड होकर बोलीं-महाशय 'ग' को इसका जवाब देना पड़ेगा भाई