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न्याय

( २ )

धर्म का अनुराग एक दुर्बल वस्तु है , किन्तु जब उसका वेग होता है, तो हृदय के रोके नहीं रुकता। दोपहर का समय था, धूप इतनी तेज थी कि उसकी ओर ताकते आँखो से चिनगारियां निकलती थीं। हज़रत मुहम्मद चिन्ता मे डूबे हुए बैठे थे । निराशा चारों और अन्धकार के रूप मे दिखाई देती थी । खुदैजा भी सिर झुकाये पास ही बैठो हुई एक फटा कुरता सी रही थी। धन-सम्पत्ति सब कुछ इस लगन की भेट हो चुकी थी। शत्रुओं का दुराग्रह दिनो-दिन बढता जाता था। उनके मतानु यायियों को भांति-भांति की यन्त्रणाएँ दी जा रही थीं। स्वय हजरत को धर से निकलना मुश्किल था । यह खौफ होता था कि कहीं लोग उन पर ईट-पत्थर न फेंकने लगें ! खबर आती थी, आज फलाँ 'मुसलिम' का घर लुट गया, आज फलाँ को लोगो ने आहत किया । हज़रत ये खबरें सुन-सुनकर विक्ल हो जाते थे और बार-बार खुदा से धैर्य और क्षमा को याचना करते थे।

हज़रत ने फरमाया-मुझे ये लोग अब यहाँ न रहने देंगे। मैं खुद सब कुछ झेल सकता हूँ , लेकिन अपने दोस्तों की तकलीफें नहीं देखी जाती।

खुदैजा हमारे चले जाने से इन बेचारो को ओर भी कोई शरण न रहेगी। अभी कम-से कम तुम्हारे पास आकर रो तो लेते है । मुसीवत मे रोने का सहारा हो बहुत होता है।

हज़रत-तो में अकेले थोड़ा ही जाना चाहता हूँ। मे सब दोस्तों को साथ लेकर जाने का इरादा रखता हूँ। अभी हम लोग यहाँ बिखरे हुए है, कोई किसी की मदद को नहीं पहुच सकता! हम सब एक ही जगह, एक कुटुम्ब की तरह रहेगे, तो किसी को हमारे ऊपर हमला करने का साहस न होगा ! हम अपनी मिली ईहु शक्ति से बालू का ढेर तो हो ही सकते हैं, जिस पर चढ़ने को किसी को हिम्मत न होगी।

सहसा जैनब घर में दाखिल हुई। उसके साथ न कोई आदमी था, न आदम- ज़ाद । मालूम होता था, कहीं से भागी चली आ रही है। खुदैजा ने उसे गले लगाकर पूछा- क्या हुआ जैनब, खोरियत तो है ?

जैनब ने अपने अन्तर-संग्राम की कथा कह सुनाई, और पिता से दीक्षा की याचना की।

हज़रत मुहम्मद आँखो में आँसू भरकर बोले-बेटी, मेरे लिए इससे ज्याद