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कुसुम

णाम वही होगा, जो बहुधा होता है। अबला कुढ़-कुढ़कर मर जाती है। यही वह समय है, जिसकी स्मृति जीवन मे सदैव के लिए मिठास पैदा कर देती है। स्त्री की प्रेम-क्षुधा इतनी तीव्र होती है कि वह पति का स्नेह पाकर अपना जीवन सफल समझती है, और इस प्रेम के आधार पर जीवन के सारे कष्टों को हँस-खेलकर सह लेती है । यह वह समय है, जब हृदय में प्रेम का वसन्त आता है और उसमें नयी-नयी आशा-कोपलें निकलने लगती हैं। ऐसा कौन निर्दयी है, जो इस ऋतु में उस वृक्ष पर कुल्हाड़ी चलायेगा ! यही वह समय है, जब शिकारी किसी पक्षी को उसके बसेरे से लाकर पिजरे में वन्द कर देता है। क्या वह उसको गर्दन पर छुरी चलाकर उसका मधुर गान सुनने की आशा रखता है ? मैंने दूसरा पत्र पढ़ना शुरू किया ।

( २ )

दूसरा पत्र

मेरे जीवन-धन, दो सप्ताह जवाब की प्रतीक्षा करने के बाद आज फिर यह उलहना देने बैठी हूँ। जब मैंने यह पत्र लिखा था, तो मेरा मन गवाही दे रहा था कि उसका उत्तर ज़रूर आयेगा । आशा के विरुद्ध आशा लगाये हुए थी । मेरा मन अब भी इसे स्वीकार नहीं करता कि जान-बूझकर उसका उत्तर नहीं दिया। कदाचित् आपको अवकाश नहीं मिला, या ईश्वर न करे, कहीं आप अस्वस्थ तो नहीं हो गये ? किससे पूछूँ ? इस विचार से ही मेरा हृदय काँप रहा हैं। मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि आप प्रसन्न और स्वस्थ हो, पत्र मुझे न लिखें, न सही, रोकर चुप हो तो हो जाऊँगो । आपको ईश्वर का वास्ता है। अगर आपको किसी प्रकार का कष्ट हो, तो मुझे तुरन्त पत्र लिखिए, मैं किसीको साथ लेकर आ जाऊँगो । मर्यादा और परिपाटी के बन्धनो से मेरा जी घबराता है, ऐसी दशा में भी यदि आप मुझे अपनी सेवा से वञ्चित रखते हैं, तो आप मुझसे मेरा वह अधिकार छीन रहे हैं, जो मेरे जीवन की सबसे मूल्यवान् वस्तु है। मैं आपसे और कुछ नहीं माँगती, आप मुझे मोटे-से-मोटा खिलाइए, मोटे से मोटा पहनाइए, मुझे ज़रा भी शिकायत न होगी । मैं आपके साथ घोर-से-घोर विपत्ति में भी प्रसन्न रहूंगी। मुझे आभूषण की लालसा नहीं, महल मे रहने की लालसा नहीं, सैर तमाशे की लालसा नहीं, धन बटोरने की लालसा नहीं । मेरे जीवन का उद्देश्य केवल आपकी सेवा करना है। यही उसका ध्येय है। मेरे लिए दुनिया में कोई देवता नहीं, कोई गुरु नहीं, कोई हाकिम नहीं। मेरे देवता आप हैं,‌