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मानसरोवर

यही इच्छा है कि मैं मर जाऊ, तो मैं मरने के लिए तैयार हूँ। केवल आपका इशारा चाहती हूंँ । अगर मेरे मरने से आपका चित्त सप्रन्न हो, तो मैं बड़े हर्ष से अपने को आपके चरणो पर समर्पित कर दूँगी । मगर इतना कहे बिना नहीं रहा जाता कि मुझमे सौ ऐब हों, पर एक गुण भी है---मुझे दावा है कि आपकी जितनी सेवा मैं कर सकती हैं, उतनी कोई दूसरी स्त्री नहीं कर सकती । आप विद्वान् हैं, उदार हैं, मनोविज्ञान के पण्डित हैं, आपकी लौंडी आपके सामने खड़ी दया की भीख माँग रहीं है। क्या उसे द्वार से ठुकरा दीजिएगा ?

आपकीं अपराधिनी,

——कुसुम

यह पत्र पढ़कर मुझे रोमाञ्च हो आया । यह बात मेरे लिए असह्य थी कि कोई स्त्री अपने पति की इतनी खुशामद करने पर मजबूर हो जाय । पुरुष अगर स्त्री से उदासीन रह सकता है, तो स्त्री क्यों उसे नहीं ठुकरा सकती ? यह दुष्ट समझता है कि विवाह ने एक स्त्री को उसका गुलाम बना दिया। वह उस अबला पर जितना अत्याचार चाहे करे, कोई उसका हाथ नहीं पकड़ सकता, कोई चुँ भी नहीं कर सकता । पुरुष अपनी दूसरी, तीसरी, चौथ शादी कर सकता है, स्त्री से कोई सम्बन्ध न रखकर भी उस पर उसी कठोरता से शासन कर सकता है । वह जानता है कि स्त्री कुल-मर्यादा के बन्धनों में जकड़ी हुई है, उसे रो-रोकर मर जाने के सिवा और कोई उपाय नहीं , अगर उसे भय होता कि औरत भी उसकी ईट का जवाब पत्थर से नहीं, ईट से भी नहीं, केवल थप्पड़े से दे सकती है, तो उसे कभी इस बदमिजाजी का साहस न होता । बेचारी स्त्री कितनी विवश है। शायद मैं कुसुम की जगह होता, तो इस निष्ठुरती का जवाब इसकी दसगुनी कठोरता से देता। उसकी छाती पर मूंग दलता । संसार के हॅसने की जरा भी चिन्ता न करता । समाज अबलाओं पर इतना जुल्म देख सकता है और चूं तक नही करता,, उसके रोने या हँसने की मुझे जरा भी परवाह ने होती । अरे अभागे युवक ! तुझे ख़बर नहीं, तू अपने भविष्य की गर्दन पर कितनी बेदर्दी से छुरी फेर रहा है । यह वह समय है, जत्र पुरुष को अपने प्रणय-भण्डार से स्त्री के माता-पिता, भाई-बहन, सखियाँ-सहेलियाँ, सभी के प्रेम की पूर्ति करनी पड़ती है, अगर पुरुष में यह सामर्थ्य नहीं है, तो स्त्री की क्षुधित आत्मा को कैसे सन्तुष्ट रख सकेगा । परि-‌