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विद्रोही


फिरने के सिवा मुझे कोई काम नहीं। पहले तो काम मिलता ही नही, और अगर मिल भी गया, तो मैं टिकता नहीं। जिन्दगो पहाड़ हो गई है। किसी बात की रुचि नहाँ रही। आदमी की सूरत से दूर भागता है।

तारा प्रसन्न है। तोन-चार साल हुए, एक बार में उसके घर गया था। उसके स्वामी ने बहुत आग्रह करके बुलाया था। बहुत कसमे दिलाई । मजबूर होकर गया । वह कली अव खिलकर फूल हो गई है। तारा मेरे सामने आई। उसका पति भी बैठा हुआ था। मैं उसकी तरफ ताक न सका । उसने मेरे पैर खींच लिये। मेरे मुंँह से एक शब्द भी न निकला । अगर तारा दुखी होती, कष्ट में होती, फटे हालो होती, तो मैं उस पर चलि हो जाता , पर सम्पन्न, सरस, विकसित तारा मेरो संवेदना के योग्य न थी। मैं इस कुटिल विचार को न रोक सका-कितनी निष्ठुरता। कितनी बेवफाई!

शाम को मैं उदास बैठा वहाँ जाने पर पछता रहा था कि तारा का पति आकर मेरे पास बैठ गया और मुसकिराकर बोला-बाबूजी, मुझे यह सुनकर खेद हुआ कि तारा से मेरे विवाह हो जाने का आपको बड़ा सदमा हुआ। तारा - जैसी रमणी शायद देवताओं को भी स्वार्थी बना देती , लेकिन मैं आपसे सच कहता हूँ, अगर मैं जानता कि आपको उससे इतना प्रेम है, ता मैं हरगिज़ आपकी राह का काँटा न बनता। शोक यही है कि मुझे बहुत पीछे मालूम हुआ। तारा मुझसे आपकी प्रेम- कथा कह चुकी है।

मैंने मुसकिराकर कहा-तब तो आपको मेरी सूरत से भी घृणा होगी।

उसने जोश से कहा- इसके प्रतिकूल में आपका आभारी हूँ। प्रेम का ऐसा पवित्र, ऐसा उज्ज्वल आदर्श उसके सामने रखा। वह आपको अब भी उसी मुहब्बत से याद करती है। शायद कोई दिन ऐसा नहीं जाता कि आपका जिक्र न करती हो। आपके प्रेम को वह अपनी ज़िन्दगी की सबसे प्यारी चीज़ समझती है। आप शायद समझते हो कि उन दिनों को याद करके उसे दुख होता होगा । बिलकुल नहीं, वहीं उसके जीवन की सबसे मधुर स्मृतियां हैं। वह कहती है, मैंने अपने कृष्णा को तुममें पाया है।

मेरे लिए इतना ही काफी है।

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