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विद्रोही


हाथ में लिये घण्टों रोया । यहो मेरे प्रेम का पुरस्कार है, यही मेरी उपासना का वरदान है, यही मेरी जीवन को विभूति है। हाय री दुराशा !

नीचे विवाह के संस्कार हो रहे थे। ठीक आधी रात के समय वधू मण्डप के नीचे आई। अब भाँवरें होंगो। मैं छत के किनारे चला आया और वह मर्मान्तक दृश्य देखने लगा । बस, यही मालूम हो रहा था कि कोई हृदय के टुकड़े किये डालता है । आश्चर्य है, मेरो छाती क्यों न फट गई । मेरी आखें क्यों न निकल पड़ी। वह मण्डप मेरे लिए चिता थी, जिसमे वह सब कुछ, जिस पर मेरे जीवन का आधार था, जला जा रहा था।

भाँवरें समाप्त हो गई, तो मैं कोठे से उत्तरा । अब क्या बाकी था । चिता की राख भी जलमग्न हो चुकी थी। दिल को थामे, वेदना से तड़पता हुआ जीने के द्वार तक आया , मगर द्वार बाहर से बन्द था। अब क्या हो ! उलटे पाँव लौटा। अब तारा के आंगन से होकर जाने के सिवा दूसरा रास्ता न था। मैंने सोचा, इस जमघट मे मुझे कौन पहचानता है, निकल जाऊँगा , लेकिन ज्यों ही आँगन मे पहुँचा, तारा की माताजी की निगाह पड़ गई । चौंककर बोलीं-कौन, कृष्णा बाबू ? तुम कब आये ? आओ, मेरे कमरे में आओ। तुम्हारे चचा साहब के भय से हमने तुम्हें न्यौता नहीं भेजा। तारा प्रात काल विदा हो जायगी। आओ, उससे मिल लो। दिन-भर से तुम्हारी रट लगा रही है।

यह कहते हुए उन्होंने मेरा बाजू पकड़ लिया और मुझे खींचते हुए अपने कमरे मे ले गई । फिर पूछा--अपने घर से होते हुए आये हो न ?

मैंने कहा-मेरा घर यहाँ कहाँ है ?

'क्यो, तुम्हारे चचा साहब नहीं हैं ?'

'हाँ, चचा साहब का घर है, मेरा घर अब कहीं नहीं है। बनने को कभी आशा थी , पर आप लोगो ने वह भी तोड़ दी।'

'हमारा इसमें क्या दोष था भैया ? लड़की का ब्याह तो कहीं-न-कहीं करना था। तुम्हारे चचाजी ने तो हमें मॅझधार मे छोड़ दिया था। भगवान् हो ने उबारा । क्या अभी सीधे स्टेशन से चले आ रहे हो ? तब तो अभी कुछ खाया भी न होगा।'

'हाँ, थोड़ा-सा ज़हर लाकर दे दीजिए, यही मेरे लिए सबसे अच्छी दबा है।'