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मानसरोवर


वह सब कपड़े उठाती लाई। इन चीजों से जैसे उसे घृणा हो गई है। बस, कलाई में दो कांच की चूड़ियाँ और एक उजली साड़ी, यही उसका सिगार है ! मैंने गोपा को सांत्वना दी-मैं जाकर जरा केदारनाथ से मिलगा। देखू तो, वह किस रंग-ढंग का आदमी है।

गोपा ने हाथ जोड़कर कहा --- नहीं भैया, भूलकर भी न जाना ; सुन्नी सुनेगी तो प्राण ही दे देगी। अभिमान की पुतली ही समझो उसे। रस्सो समझ लो, जिसके जल जाने पर भी बल नहीं जाते। जिन पैरों ने उसे ठुकरा दिया है, उन्हें वह कभी न सहलायेगी। उसे अपना बनाकर कोई चाहे तो लौंडी बना ले , लेकिन शासन तो उसने मेरा न सहा, दूसरों का क्या सहेगी।

मैंने गोपा से तो उस वक्त कुछ न कहा; लेकिन अवसर पाते ही लाला मदारी- लाल से मिला। मैं रहस्य का पता लगाना चाहता था। सयोग से पिता और पुत्र, दोनों एक ही जगह मिल गये। मुझे देखते ही केदार ने इस तरह झुककर मेरे चरण छुए कि मैं उसकी शालीनता पर मुग्ध हो गया। तुरन्त भौतर गया और वाय, मुरब्बा और मिठाइयों लाया। इतना सौम्य, इतना सुशोल, इतना विनन्न युवक मैंने न देखा था। यह भावना ही न हो सकती थी कि इसके भीतर और बाहर में कोई अन्तर हो सकता है। जब तक रहा, सिर झुकाये बैठा रहा। उच्छृङ्खलता तो उसे छू भी नहीं गई थी।

जब केदार टेनिस खेलने चला गया, तो मैंने मदारीलाल से कहा --- केदार बाबू तो बहुत सन्चश्त्रि जान पड़ते हैं, फिर स्त्री-पुरुष में इतना मनोमालिन्य क्यों हो गया है ?

मदारीलाल ने एक क्षण विचार करके कहा-इसका कारण इसके सिवा और क्या बताऊँ कि दोनों अपने माँ बाप के लादले हैं, और प्यार लड़कों को अपने मन का बना देता है। मेरा सारा जीवन संघर्ष में स्टा। अब जाकर जरा शांति मिली है। भोग-विलास का कभी अवसर ही न मिला। दिन-भर परिश्रम करता था, संध्या को पड़कर सो रहता था। स्वास्थ्य भी अच्छा न था, इसलिए बार-बार यह चिन्ता सवार रहती थी दि कुछ सचय कर लें। ऐसा न हो कि मेरे पीछे बाल-बच्चे भीख मांगते फिरे। नतीजा यह हुआ कि इन महाशय को मुफ्त का धन मिला। सनक सवार हो गई। शराब उड़ने लगी। फिर ड्रामा खेलने का शौक हुआ। धन की कमी थी ही नही, उस पर मां-बाप के अवेले बेटे। उनकी प्रसन्नता हो हमारे जीवन का स्वर्ग