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मानसरोवर


लड़के हुए। दोनों लड़के तो बचपन में ही दया दे गये थे। लड़की बच रही थी, और यही इस नाटक का सबसे करुण दृश्य था। जिस तरह का इनका जीवन था, उसके देखते इस छोटे-से परिवार के लिए दो सौ रुपये महीने की जरूरत थी। दो-तीन साल में लड़की का विवाह भी करना होगा। कैसे क्या होगा, मेरी बुद्धि कुछ काम न करती थी।

इस अवसर पर मुझे यह वहुमूल्य अनुभव हुआ कि जो लोग सेवा-भाव रखते हैं और जो स्वार्थ-सिद्धि को जीवन का लक्ष्य नहीं बनाते, उनके परिवार को आड़ ‘देनेवालों की कमी नहीं रहती। यह कोई नियम नहीं हैं ; क्योंकि मैंने ऐसे लोगों को भी देखा है, जिन्होंने जीवन में बहुतों के साथ सलूक किये ; पर उनके पीछे उनके याल-बच्चों को किसी ने बात तक न पूछी ; लेकिन चाहे कुछ हो, देवनाथ के मित्र ने प्रशसनीय औदार्य से काम लिया और गोपा के निर्वाह के लिए स्थायौ धन जमा करने का प्रस्ताव किया। दो-एक सज्जन जो रंडुवे थे, उससे विवाह करने को तैयार थे ; किन्तु गोपी ने भी उसी स्वाभिमान का परिचय दिया, जो हमारी देवियों का जौहर है और इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। मकान बहुत बड़ा था। उसका एक भाग किराये पर उठा दिया। इस तरह उसको ५०) माहवार मिलने लगे। वह इतने में ही अपना नियहि कार लेगी ! जो कुछ खर्च था, वह सुन्नी की जास से था। गोपा के लिए तो जीवन में अब कोई अनुराग ही न था ।

( २ )

इसके एक ही महीने बाद मुझे कारोबार के सिलसिले में विदेश जाना पड़ा और वहाँ मेरे अनुमान से छह अधिक-दो साल--लग गये। पोप के पन्न बराबर जाते रहते थे, जिससे मालूम होता था-वे आराम से हैं, कोई चिन्ता की बात नहीं, है। मुझे पीछे ज्ञात हुआ कि गोपा ने मुझे भी ग्रे र समझा और वास्तविक स्थिति छिपाती रही।

विदेश से लौटकर मैं सीधा दिल्ली पहुँचा। द्वार पर पहुँचते ही मुझे रोना आ गया। मृत्यु की प्रतिध्वनि-सी छाई हुई थी। जिस कमरे में मित्रों के जमघट रहते -ये, उसके द्वार बंद थे, मकड़ियों ने चारों ओर जाले तान रखे थे। देवनाथ के साथ -वह श्री भी लुप्त हो गई थी। पहली नज़र मैं तो मुझे ऐसा भ्रम हुआ कि देवनाथ द्वार पर खड़े मेरी ओर देखकर मुस्करा रहे हैं। मैं मिथ्यावादी नहीं हैं और आत्मा की