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'मानसरोवर


उसका दुरुपयोग है कि व्यर्थ में किसी बात को ढूंस दिया जाय। हम चाहते हैं, आदमी को जो कुछ कहना हो, चटपट कह दे और अपनी राह ले। मगर नहीं, भापको चार पन्ने रंगने पड़ेंगे, चाहे जैसे लिखिए। और पन्ने भी पूरे फुल्के प के -आकर के। यह छात्रों पर अत्याचार नहीं तो और क्या है ? अनर्थ तो यह है कि कहा जाता है। संक्षेप में लिखो। समय की पाबन्दी पर संक्षेप में एक निबन्ध लिखो, जो चार पन्ने से कम न हो। ठीक ! संक्षेप में तो चार पन्ने हुए, नहीं शायद सौ-दो सौ पन्ने लिख- वाले। तेज भी दौड़िए और धीरे-धीरे भी। है उल्टी बात या नहीं ? बालक भी इतनी-' सी बात समम सकता है, लेकिन इन अध्यापकों को इतनी तमीज़ भी नहीं। उन पर दावा है कि हम अध्यापक हैं। मेरे दरजे में पाओगे लाला, तो ये सारे पापद बेलने पड़ेंगे और तब आटे-दाल का भाव मालूम होगा। इस दाजे में अव्वल आ गये हो, तो जमीन पर पांव नहीं रखते। इसलिए मेरा कहना मानिए। लाख फेल हो गया हूँ, लेकिन तुमसे बड़ा हूँ, संसार का मुझे तुमसे ज्यादा अनुभव है। जो कुछ कहता हूँ, उसे गिरह बाधिए, नहीं पछताइएगा।

स्कूल का समय निकट था, नहीं ईश्वर जाने यह उपदेश-माला कब समाप्त होती। भोजन आज मुझे निस्स्वाद-सा लग रहा था। जब पास होने पर यह तिरस्कार हो रहा है, तो फेल हो जाने पर तो शायद प्राण ही ले लिये जायें। भाई साहब ने अपने दरजे की पढ़ाई का जो भयंकर चित्र खींचा था, उसने मुझे भयभीत कर दिया। कैसे स्कूल छोड़कर घर नहीं भागा, यही ताज्जुब है। लेकिन इतने तिरस्कार पर भी पुस्तकों से मेरी अरुचि ज्यों-को-त्यों बनी रही। खेल कूद का कोई अवसर हाथ से न जाने देता। पढ़ता भी था; मगर बहुत कम, बस इतना कि रोज का टास्क पूरा हो जाय और दरजे मे जलील न होना पड़े। अपने ऊपर जो विश्वास पैदा हुआ था, वह फिर लुप्त हो गया और फिर चोरों का-सा जीवन कटने लगा।

'( ३ )

फिर सालाना इम्तहान हुआ, और कुछ ऐसा सयोग हुभा कि मैं फिर पास हुभा और भाई साहब फिर फेल हो गये। मैंने बहुत मेहनत नहीं की। पर न जाने कैसे दरजे में अव्वल आ गया। मुझे खुद अचरज हुआ। भाई साहब ने प्राणांतक परिश्रम किया था। कोर्स का एक-एक शब्द चाट गये थे, दस बजे रात तक इधर, चार बजे भोर से उधर, छ: है साढ़े नौ तक रकूल जाने के पहले । मुद्रा ति हौन हो गई थी।