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बेटोंवाली विधवा


समझ में न आया। अपना हानि-लाभ ! अपने घर में हानि-लाभ को जिम्मेदार वह आप है। दूसरों को, चाहे वे उसके पेट के जन्मे पुत्र ही क्यों न हों, उसके काम में हस्तक्षेप करने का क्या अधिकार ? यह लौंडा तो इस ढिठाई से जवाब दे रहा है, मान घर उसी का है, उसी ने मर-मरकर गृहस्थी चौड़ी है, मैं तो गैर हूँ। ज़रा इसकी है तो देखो !

उसने तमतमाये हुए मुख से कहा---मेरे हानि-लाभ के जिम्मेदार तुम नहीं हो। सल्ले अख्तियार है, जो उचित खमझे इद्द करू। अभी जाकर दो बोरे आटा और पाँच दिन घी और लाओ और आगे के लिए खरदार, जो किसी ने मेरी बात कोटी।

अपने विचार में उसने काफो तम्बाह कर दी थी। शायद इतनी कठोरता अनावश्यक थी। उसे अपनी उग्रता पर खेद हुआ। लइके हो तो हैं, समझे होगे, कुछ किफायत करनी चाहिए। मुझसे इसलिए न पूछा होगा कि अम्म तो खुद हरेक क्रम में विकायत किया करती हैं। अगर इन्हें मालूम होता, कि इस काम में मैं किफायत पसन्द न करूंगी ; तो कभी इन्हें मेरो उपेक्षा करने का साहस न होता। यद्यपि कापतानाथ अब भी उसो जगह खड़ा था और उसकी भावभगी से ऐसा ज्ञात होता था कि इस आज्ञा का पालन करने के लिए वह बहुत उत्सुक नहीं, पर फूलमती निश्चिन्त होकर अपनी कोठरी में चली गई। इतनी तम्बीह पर भी किसी को उसकी अवज्ञा करने का सामर्थ्य हो सकता है, इसकी सम्भावना का ध्यान भो उसे न आया।

पर ज्यों-ज्य समय बीतने लगा, उस पर यह इकोक्रत खुलने लगी कि इस घर में अब उसकी वह हैसियत नहीं रही, जो दस-बारह दिन पहले थी। सम्बन्धियों के यहाँ से नेवते से शकर, मिठाई, दही, अचार आदि आ रहे थे। बड़ो बहू इन वस्तु को स्वामिनी-भाव से सँभाल-सँभालकर रख रही थी। कोई भी उम्रप्से पूछने नहीं अतः। विरादरी के लोग भी जो कुछ पूछनें हैं, कामतानाथ से, या बड़ी बहू से। कामतानाथ कहाँ का चढ़ा इन्तज़ामार है, रात-दिन भग पिये पड़ा रहता है। किसी तरह रो-धोकर दफ़्तर इला जाता है। उसमें भी महोने में पन्द्रह ना से कम नहीं होते। वह तो कहो, हुन पण्डितजी का लिहाज करता है, नहीं अब तक कभी झा निकाल देता है और वह बहू-जैसी फूहड़ औरत भला इन बातों को क्या समझेगी। अपने पदे लत्ते तक तो जतन से रख नहीं सकती, चलो है गृहस्थी चलाने। भद होगी। और क्या। सब मिलकर कुल की नाक कटवायेंगे। वक्त पर कोई-न-कोई चीज़ कम