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मानसरोवर


किससे अपनी व्यथा छ है ? किसे अपनी छाती चीरकर दिखाये ? वह होते तो क्या आज प्रकाश दासता की कृञ्जीर गले में डालकर फूला ने समाता है उसे कौन समझाये कि आदित्य भी इस अवसर पर पछताने के सिवा और कुछ न कर सकते।

प्रकाश के मित्रों ने आज उसे विदाई का भोज दिया था। वहीं से वह सन्ध्या समय कई मित्र के साथ मेंटर पर लौटा। सफर का सामान गटर पर रख दिया आयो। तब वह अन्दर जाकर माँ से बोला--- अम्माँ, राता हूँ। चम्बई पहुँचकर पत्र लिखेंगा। तुम्हें मेरी कसम, रोना मत, और मेरे खता का जनाब बरावर देंना।

जैसे किसी लाश छौ बाहर निकालते समय सम्वन्धिर्यों का धैर्य छूट जाता है, रुके हुए असू निकल पड़ते हैं और शोक की तरगें उठने लगती हैं, वहीं दशा करुणा की हुई। कलेजे में एक हाहाकार हुआ जिसने उसको दुर्वल आत्मा के एक-एक अणु। कैंप दिया, मालूम हुआ, पाँव पानी में फिसल गया है, और मैं लहरों में वही जा रही हैं। इसके मुख से शोक या शिवदि का एक शब्द भी न निकला। प्रकाश ने उसके चरण छुए, अश्रुजल से माता के चरणों को पतारा, फिर बाहर चला गया है। करुणा पाषाण-मूर्ति की भाँति खड़ी थी।

सहसा ग्वाले ने आकर कहा--- बहुजी, भइया चले गये ! बहुत रोते थे।

तब करुणा की समाधि टुटी। देखा, सामने कोई नहीं है। घर में मृत्यु का-सा सुन्नाटा छाया हुआ है, और न हृदय की गति बन्द हो गई है।

गृहसा करुणा की दृष्टि ऊपर उठ गई। उसने देखा कि आदित्य अपनी गोद में प्रकाश की निर्जीव देह लिये खड़े हो रहे हैं। करुणा पछाड़ खार गिर पड़ी।

( ६ )

करुणा जीवित थी ; पर ससार से उसदा छोई नाता ने था। उसका छोटा-सा ससार, जिसे उसने अपनी कल्पना के हृदय में रचा था, स्वप्न की भाँति अनन्त में विलीन हो गया था। जिस प्रकाश को सासने देखर वह जीवन की अंधेरी रात में भी हृदय में आशाओं की सम्पत्ति लिये जा रही थी, वह बुझ गया और सन्पत्ति लुट गई। अब न कोई आश्रय था, और न उसकी छालत जिन गउओं को वह दोनों वक अपने हाथ से दाना-चार देती और सहलाती थी, अब खूँटे पर बैवी निराश नेत्र से द्वार की और ताकतों रहती थीं। बछ को गले लगाकर चुमकारनेवाला अब