वृद्धा ने कहा --- बड़ी बेशर्म है।
नवयौवना ने तिरस्कार-भाव से उसकी और देखकर कहा --- ठाठ तो भते पर को देवियों के हैं।
'बस ठाठ ही देख लो। इसी से मर्द करते है --- स्त्रियों को आजादी न मिलना चाहिए।
'मुझे तो कोई वेश्या मालूम होती है।'
'वेश्या हो सही ; पर उसे इतनी बेशर्मी करके स्त्री-समाज कोलज्जित करने का क्या अधिकार है।'
'कैसे मजे से सो रही है, मानों अपने घर में है।'
'बेहयाई है, मैं परदा नहीं चाहती, पुरुषों की गुलामी नहीं चाहती, लेकिन औरतों में जो गौरवशीलता और सहजता है, उसे नहीं छोड़ना चाहती। मैं किसी युवती को सड़क पर सिगरेट पीते देखती हूँ, तो मेरे बदन में भाग ला जातो है। उसी तरह आधी छाती का शाम्पर भी मुझे नहीं सोहाता । च्या अपने धर्म को लाज छोड़ देने ही से साबित होगा कि हम बहुत फाई हैं ? पुरुष अपनी छाती या पीठ खोले तो नहीं घूमते ?'
'इसी बात पर पाजी, जव में भापको आड़े हार्थों लेतो हूँ, तो आप बिगड़ने लगती है। पुरुष स्वाधीन है, वह दिल में समझता है कि मैं स्वाधीन हूँ। यह स्वाधीनता का स्वांग नहीं सरता । स्त्री अपने दिल में समस्ती रहती है कि वह स्वाधीन नहीं है। इसलिए वह अपनी स्वाधीनता का ढोंग करती है । जो बलवान है, वे करते नहीं । लो दुर्बल है, वही अकए दिखाते हैं । क्या आप उन्हें अपने मासू पोछने के लिए इतना अधिकार भी नही देना चाहती!'
'मैं तो कहती हूँ, स्त्री अपने को छुपाकर पुरुष को जितना नचा सकती है, अपने को खोल्कर नहीं नचा सक्ती।'
'स्नो ही पुरुष के आकर्षण की पिक क्यों करे? पुरुष क्यों स्त्री से पर्दा नहीं करता!'
'अब मुंँह न खुल्वाओ मौनू । इस छोकरी को नगाकर कह दो-माकर पर में सोये । इतने आदमी आ-जा रहे हैं और यह निर्लज्जा टाँग फैनाये पड़ी है। यहाँ इसे नींद जैसे आ गई ?'
'रात कितनी गर्मी थी बाईजी ! टप्डक पाकर बेचारी को आंँख लग गई है।'