पृष्ठ:मानसरोवर १.pdf/२८९

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

३००
मानसरोवर

कोई चार बजे चैनसिंह कचहरी से फुरसत पाकर बाहर निकले। हाते में पान की दूकान थो, जरा और आगे बढ़कर एक घना बरगद का पेड़ था। उसको छाँह में बोसों ही तांगे, इक्के, फिटने खड़ी थी। घोड़े खोल दिये गये थे। वकीलों, मुख्तारों और अफसरों को धवारियां यहीं खो रहती थी चनसिंह ने पानी पिया, पान खाया भोर सोचने लगा, कोई लारो मिल जाय, तो जरा शहर चला जाऊँ कि उपकी निगाह एक घासवाली पर पड़ गई। सिर पर घास का साबा रखे साईसों से मोल-भाव कर रही थी । चैनसिंह का हृदय उछल पहा -यह तो मुलिया है ! बनी-ठनी, एक गुलाबो साड़ी पहने कोचवानों से मोल-तोल कर रही थे। कई छोचवान जमा हो गये थे। कोई उससे दिल्लगी करता था, कोई घूरता था, कोई हसता था।

एक काले-कालटे कोचवान ने कहा --- मूला, घास तो उड़के छः आने की है।

मुलिया ने उन्माद पैदा करनेवाली आँखों से देखघर कहा --- छ. आने पर लेना है, तो वह सामने सियारिन वठो हैं, चले जाओ, दो-चार पैसे कम में या जाओगे, मेरी घास तो बारह आने में ही जायगी।

एक अधेड़ कोचवान ने फिटन के ऊपर से कहा --- नेश अमाना है, बारह आने नहीं, एक रुपया मांग लेनेशले न मारेंगे और लेंगे। निकलने दे वकीलों को । भव देर नहीं है।

एक तांगेवाले ने, जो गुलावो पगड़ी बांधे हुए था, बोला---बुढ़ऊ के मुँह में भी पानी भर आया, अब मुलिया काहे को किसी की भोर देखेगा !

चैनसिंह को ऐसा क्रोध आ रहा था कि इन दुष्टों को जूतों से पौटे। सब-के-सब कैसे उसकी और टकटको लगाये ताक रहे हैं, मानों आँखों से पी जायेंगे । और मुलिया भी यहां कितनी खुश है । न लजातो है, न मिलती है, न दबतो है। कैसा मुस- किरा मुसकिराकर, रसोली आँखों से देख-देखकर, सिर का अञ्चल खिसका-खिसकाकर, मुँह मोड़-मोरकर बातें कर रही है। वही मुलिया, जो शेरनी की तरह तड़प उठी थो।

इतने में चार बजे। अमले और वकील-मुख्तारों का एक मेला-सा निकल पड़ा। अमले लारियों पर दौड़, वकील-मुख्तार इन सवारियों को जोर चले । कोचवानों ने भी चटपट घेड़े जोते। कई महाशयों ने मुलिया को रसिक नेत्रों से देखा और अपनी गाड़ियों पर जा‌।

एकाएक मुलिया घास का झावा लिये उस फिटन के पिछे शैड़ी। फिटन में एक 1