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आखिरी हीला


सिंगार के सिवा दूसरा काम ही नहीं। नित्य नई सज-धज, नित्य नई अदा, और चचल तो इस अजब की हैं, मानो अगों में रक को जगह पाराभर दिया हो। उनका चमकना और मटकना और मुस्काना देखकर गृहिणियाँ लजित हो जाती है और ऐसो दीदादिलेर हैं कि जबरदस्तो घरों में धुत पड़ती है। जिधर देखो उधर इनका मेला-सा लगा हुआ है। इनके मारे भले आदमियों का घर में बैठना मुश्किल है। कोई खत लिखाने के बहाने से आ जाती है, कोई खत पढ़ाने के बहाने से। असली थात यह है कि गृहदेवियों का रंग फीका करने में इन्हें मानन्द आता है। इसीलिए शरीफ़ज़ादियां बहुत कम शहरों में आती हैं।

मालूम नहीं इस पत्र में मुम्छसे क्या गलती हुई कि तीसरे दिन पनौजी एक बूढे कहार के साथ मेरा पता पूछती हुई अपने तीनों बच्चों को लिये एक असाध्य रोग को भांति आ डटी।

मैंने बदहवास होकर पूछा --- क्यों कुशल तो है ?

पत्नीजी ने चादर उतारते हुए कहा --- घर में कोई चुडैल मैठो तो नहीं है ? यहाँ किसी ने कदम रखा तो नाक काट लूँगी। हाँ, जो तुम्हारी सह न हो।

अच्छा तो अब रहस्य खुला। मैंने सिर पीट लिया। क्या जानता था, अपना तमाचा अपने ही मुँह पर पड़ेगा।