'तुम्हें दिल्लगी सूझती है ! यहाँ नौकरी जा रही है।'
'जब यह डर था, तो लड़े क्यों ।'
'मैं थोड़ा हो लड़ा। उसी ने मुझे बुलाकर बांटा।'
'बेकसूर ?'
'अब तुमसे क्या कहूँ।'
'फिर वही पर्दा। कह चुकी, यह मेरी बहन है। मैं इससे कोई पक्ष नहीं रखना चाहती।'
'और जो इन्हों के बारे में कोई बात हो, तो ?'
देवीजी ने जैसे पहेलो बूझकर कहा --- अच्छा, समझ गई। कुछ खुफियो काम झगड़ा होगा ? पुलोस ने तुम्हारे प्रिसिपल से शिकायत की होगी। ज्ञान बाबू ने इतनी आसानी से अपनी पहेलो का बूमझा जाना स्वीकार न किया।
बोले --- पुलीस ने प्रिसिपल से नहीं, हाकिम-जिला से कहा। उसने प्रिंसिपल को बुलाकर मुझसे जवाब तलब करने का हुक्म दिया। देवी ने अन्दाज़ से कहा --- समझ गई। प्रिंसिपल ने तुमसे कहा होगा कि उस स्त्री को घर से निकाल दो।
'हो, यही समझ लो।'
'तो तुमने क्या जवाब दिया।'
अभी कोई जवाब नहीं दिया। वहां खड़े-खड़े क्या कहता।'
देवीजी ने उन्हें भाड़े हाथों लिया --- जिस प्रश्न का एक ही जवाब हो, उसमें सोच-विचार कैसा ?
ज्ञान बाबू सिटपिटाकर बोले --- लेकिन कुछ सोचना तो जरूरी था।
देवीजी की त्यौरियां बदल गई । आज मैंने पहली बार उनका यह रूप देखा। बोली-तुम उस प्रिंसिपल से जाकर कह दो, मैं उसे किसी तरह नहीं छोड़ सकता और न माने, तो इस्तीफा दे दो। अभी जाओ । लौटकर हाथ-मुँह धोना।
मैंने रोकर कहा --- बहन, मेरे लिए...
देवी ने डांट बताई --- तू चुप रह, नहीं कान पकड़ लगी। तू क्यों बोच में कूदती है ? रहेंगे, तो साथ रहेंगे। मरेंगे, तो साथ मरेंगे । इस मर्दुए को मैं क्या कहूँ !
१७