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मानसरोवर

'मैं बड़े संकट में है कि तुम्हें क्या जवाब दूं। मैंने इधर इस समस्या पर खूब ठण्डे दिल से विचार किया है और इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि वर्तमान दशाभों में मेरे लिए पिता की आज्ञा की उपेक्षा करना दुःसह है। मुझे कायर न समझना। मैं स्थार्थी भी नहीं है, लेकिन मेरे सामने जो बाधाएँ है, उन पर विजय पाने की शकि मुममें नहीं है। पुरानी बातों को भूल जाओ। उस समय मैंने इन बाधाओं की कल्पना न की थी।

प्रेमा ने एक लम्बी, गहरी, जलती हुई साँस खींची और उस खत को फाड़कर फैक दिया। उसकी आँखों से अश्रुधार महने लगी। जिस केशव को उसने अपने अन्तःकरण से पर लिया था, वह इतना निष्ठुर हो जायगा, इसकी उसको रत्ती भर भी आशा न थी। ऐसा मान्म पड़ा, मानो अस तक वह कोई सुनहला स्वप्न देख रही थी। पर भाख खुलने पर सब कुछ अदृश्य हो गया। जीवन में जक आशा ही लुप्त हो गई, तो अन्धकार के सिवा और क्या था ! अपने हृदय को गरी सम्पत्ति लगाकर उसने एक नाव दवाई थी, वह नाव जलमग्न हो गई । अब दूसरी नाव वह कहाँ से लदवाये। सगर वह नाव डूबी है, तो उसके साथ ही वह भी खूब बायगी।

माता ने पूछा --- क्या केशव का पत्र है।

प्रेमा ने भूमि को और ताकते हुए कहा --- हां, उनकी तबीयत अच्छी नहीं है। इसके सिवा वह और क्या कहे ? केशव की निष्ठुरता और बेवफ्राई का समाचार कहकर कजित होने का साहस उसमें न था।

दिन भर वह घर के काम-धन्धों में लगी रही, मानो से कोई चिन्ता ही नहीं है। गत को उसने समको भोजन कराया, खुद भी भोजन किया, और बड़ी देर तक हारमोनियम पर गाती रही।

मगर सवेरा हुआ, तो उसके कमरे में उसकी लाश पड़ी हुई थी। प्रभात की सुनहरी किरणें उसके पीले मुख को-जीवन की आभा प्रदान कर रही थीं।